शनिवार, 20 अप्रैल 2024

*व्यासदासजी की पद्य टीका*

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*दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुँ सुने न जाइ ।*
*जिह्वा आन न बोलिये, अंग न और सुहाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*व्यासदासजी की पद्य टीका*
*आत भये गृह छाड़ वृन्दावन,*
*हेत इसो वन त्यागत खीजै ।*
*भूप बुलावत आप न भावत,*
*सेव किशोर हु में मन भीजै ॥*
*पाग जरी न रहै शिर चीकन,*
*बाँधन द्यौ नहिं आप बँधीजै ।*
*कुंज गये उठ आत भई सुधि१,*
*मंजु रह्यो बँध क्यों मम रीझै ॥३९३॥*
बुन्देलखण्ड, ओड़छा के राजपुरोहित पंडित सुमोखन शर्मा शुक्ल की धर्मपत्नी से मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी वि० सं० १५६७ को एक पुत्र उत्पन्न हुआ था । उस बालक का नाम हरिराम रखा गया था । हरिराम बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान् हुए । पिता के परलोकवासी होने पर आप ओड़छा नरेश मधुकर शाह के राजपुरोहित हो गये । आपको वाद-विवाद द्वारा दूसरे विद्वानों को पराजित करने का व्यसन था ।
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एक बार काशी गये वहाँ भी वाद विवाद में उत्कृष्टता रही । आपने श्रावण मास में विश्वनाथजी का अभिषेक कराया था । उससे भगवान् शंकर प्रसन्न हुए । उसी रात को स्वप्न में एक संत ने आपसे पूछा- "विद्या की पूर्णता कब होती है ?" आपने कहा- "सत्यासत्य को जानकर प्राप्त करने योग्य को प्राप्त करने से ।" संत ने कहा- "फिर आप प्राप्त करने योग्य प्रभु को प्राप्त क्यों नहीं करते ? विवाद में क्यों पड़े हो ? भक्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त करे बिना आपकी विद्या अधूरी ही है ।"
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हरिरामजी जागे तब उनका विद्या का नशा उतर गया । वे काशी से सीधे ओड़छा आये । उसी समय हितहरिवंशजी के शिष्य संत नवलदासजी ओड़छा पधारे थे । उनके सत्संग से हरिरामजी को बड़ी तृप्ति प्राप्त हुई । वे घर छोड़कर वि० सं० १५९१ के कार्तिक मास में वृन्दावन पहुँचे । हितहरिवंशजी के पास गये तब वे भगवान् के भोग के लिये रसोई बना रहे थे । उसी समय हरिरामजी ने उनसे बातें करनी चाही । तब हितहरिवंशजी ने चूल्हे पर से पात्र उतार दिया और जल से अग्नि को शान्त कर दिया ।
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हरिरामजी ने कहा- "रसोई और बातें दोनों काम साथ हो सकते थे ?" हितहरिवंशजी ने कहा- "दोनों स्थानों पर मन लगाये रखना व्यभिचारात्मक चित्तवृति है । यह काल सर्प से ग्रसित है, अतः उस काल ब्याल से बचने के लिये चित्त को सब ओर से खींचकर श्रीश्यामा श्याम के चरणों में ही लगाने वाला धन्य है ।" बस हरिरामजी ने हितहरिवंशजी से दीक्षा ग्रहण कर ली । राजपुरोहित न रहकर उनका नाम व्यासदास हो गया । सेवा कुञ्ज के पास एक मन्दिर बनाकर राधाकृष्ण की सेवा में लग गये ।
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आपका वृन्दावन में ऐसा स्नेह था कि कोई वृन्दावन से जाना चाहता था, उस पर आप रुष्ट होते थे । ओड़छा नरेश आपको बुलाते थे किन्तु आपको वृन्दावन से जाना अच्छा नहीं लगता था । राजा ने अपने मंत्री को भेजा कि एक बार पुरोहितजी को यहाँ अवश्य लाओ । उसने बहुत प्रयत्न किया; किन्तु आप अडिग ही रहे । मन्त्री ने हितहरिवंशजी को कहा । आपने कहा-अच्छा मैं तुम्हारी बात उनको कह दूँगा, एक बार हो आयेंगे ।
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इनको ज्ञात हो गया कि गुरुजी ओड़छा जाने की आज्ञा देंगे । आप यमुना के तट के झाउओं में छिप गये । तीन दिन तक पता नहीं लगा । तब हितहरिवंशजी ने अपने शिष्यों को भेजा । गुरुजी ने बुलाया है यह सुनकर झाउओं से निकल, यमुना स्नान कर, मुख को काला करके तथा एक गधा लेकर चले । पूछने पर कहा- "गुरुजी वृन्दावन छोड़ने की आज्ञा देंगे । तब वृन्दावन से काला मुख करके और गधे पर चढ़कर ही जाऊँगा । उस समय मिले या नहीं मिले इसके साथ लिया है ।"
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यह जब हितहरिवंशजी को ज्ञात हुआ तब उनने कह दिया- "मैं तो उनको वृन्दावन से जाने का नहीं कहूँगा ।" फिर गुरुजी के पास आये । गुरु ने हृदय से लगा लिया । फिर भी मंत्री का आग्रह बना ही रहा । मन्त्री ने आपको सब संतों की जूठी पत्तलों से उठा कर जुठन खाते देखा तब उपराम हो गया । मन्त्री ने ओड़छे आकर कहा- "वे तो सब की जूठन खाने लग गये हैं, किसी काम के नहीं रहे ।" किन्तु राजा भक्त था । उसकी और भी श्रद्धा बढ़ी, स्वयं वृन्दावन गया और कहा ओड़छे एक ही दिन पधारिये ।
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व्यासदासजी कुछ न कुछ बहाना बनाते रहे । अन्त में राजा ने अपने कर्मचारियों को कहा- "इनको बलपूर्वक पालकी में बैठाकर ले चलो ।" तब आपने कहा- मेरे भाई बन्धुओं से मिल लूँ फिर चलूँगा । वे वृन्दावन के प्रत्येक वृक्ष को छाती से लगा कर फूट फूट रो रो कर कहने लगे "क्या करूँ मैं तो आप को नहीं छोड़ना चाहता, मुझे बिना इच्छा ही ले जा रहा हैं ।" यह देखकर राजा का भी मन पिघल गया । उसने ले जाने का आग्रह छोड़ दिया और क्षमा माँगी । आपका मन तो नन्दकिशोर की सेवा में हो निमग्न हो रहा था, कैसे जाते, नहीं गये ।
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फिर आपकी धर्मपत्नी भी अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वृन्दावन आ गई । धर्मपत्नी ने आपकी आज्ञा के अनुसार रहना स्वीकार किया तब उसे दीक्षा देकर उसका नाम वैष्णवदासी रख दिया । एक पुत्र ने हरिदास से दीक्षा ली और युगलकिशोरदास नाम से प्रसिद्ध हुये । ये भी वृन्दावन को छोड़कर नहीं जाते थे, धामनिष्ठा के भक्त थे । इनका नाम धामनिष्ठा के भक्तों में मूल छप्पन २६२ में आया है । एक जरी का पाग किसी ने भगवान् के लिये भेजा था । उसको भगवान के सिर पर व्यासदासजी बाँध रहे थे किन्तु भगवत् मूर्ति का शिर चिकना होने से वह ठीक नहीं बँधता था ।
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तब आपने भगवान् से कहा- "या तो मुझे बाँधने दो और मेरा बाँधा हुआ आपको अच्छा नहीं लगे तो आप बाँध लीजिये ।" ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और सेवा कुंज के दर्शन करने चले गये । कुछ देर के बाद ही घर से किसी व्यक्ति ने आकर कहा- "पाग भगवान् के शिर पर बहुत अच्छा बँधा है ।" यह सूचना१ आते ही आपने आकर देखा तो बड़ा सुन्दर बँधा है । उसको देखकर आप बड़े प्रसन्न हुए और बोले - "जब आप ही ऐसा सुन्दर बाँधना जानते हैं तब मेरे बाँधे हुये से आप कैसे प्रसत्र होते"!
(क्रमशः)

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