शनिवार, 27 अप्रैल 2024

श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश

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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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डाक्टर सरकार आये । डाक्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भाव का कुछ उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"
डाक्टर कह रहे हैं - "जी, हाँ ।”
श्रीरामकृष्ण - मैं बेहोश नहीं हूँ ।
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डाक्टर समझ गये कि श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश है । इसीलिए उत्तर में कहा - "हाँ, आप खूब होश में हैं !"
श्रीरामकृष्ण हँसकर गाने लगे - "मैं सुरा-पान नहीं करता, किन्तु 'जय काली' कह-कहकर सुधापान करता हूँ । इससे मेरा मन मतवाला हो जाता है, पर लोग बोलते हैं कि मैं सुरा-पान करके मत्त हो गया हूँ !
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गुरुप्रदत्त रस को लेकर, उसमें प्रवृत्तिरूपी मसाला छोड़कर, ज्ञान-कलार शराब बनाकर भाँड़े में छान लेता है । मूलमन्त्ररूपी बोतल से ढालकर मैं 'तारा-तारा' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ; और मेरा मन उसका पान कर मतवाला हो जाता है । प्रसाद कहता है, ऐसी सुरा का पान करने से चारों फलों की प्राप्ति होती है ।"
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गाना सुनकर डाक्टर को भावावेश-सा हो गया । श्रीरामकृष्ण को भी पुनः भावावेश हो गया । उसी आवेश में उन्होंने डाक्टर की गोद में एक पैर बढ़ाकर रख दिया । कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । तब पैर खींचकर उन्होंने डाक्टर से कहा - "अहा, तुमने कैसी सुन्दर बात कही है ! 'उन्हीं की गोद में बैठा हुआ हूँ । बीमारी की बात उनसे नहीं कहूँगा तो और किससे कहूँगा ?' - बुलाने की आवश्यकता होगी तो उन्हें ही बुलाऊँगा ।"
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यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण की आँखें आँसुओं से भर गयीं । वे फिर भावाविष्ट हो गये । उसी अवस्था में डाक्टर से कह रहे हैं - "तुम खूब शुद्ध हो । नहीं तो मैं पैर न रख सकता !" फिर कह रहे हैं – “'शान्त वही है जो रामरस चखे ।'
"विषय है क्या ? - उसमें क्या है ? - रुपया, पैसा, मान, शरीर-सुख इनमें क्या रखा है ? 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”
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बीमारी की इस अवस्था में श्रीरामकृष्ण को भावावेश में रहते देखकर भक्तों को चिन्ता हो रही है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "उस गाने के हो जाने पर मैं रुक जाऊँगा - 'हरि-रस-मदिरा – ’।" नरेन्द्र एक दूसरे कमरे में थे, बुलाये गये ।
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गन्धर्वोपम कण्ठ से नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "ऐ मेरे मन हरि-रस-मदिरा का पान करके तुम मस्त हो जाओ । मधुर हरिनाम करते हुए धरती पर लोटो और रोओ । हरि-नाम के गम्भीर निनाद से गगन को छा दो । 'हरि-हरि' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचो, और सब में इस मधुर हरि-नाम का वितरण कर दो । ऐ मन, हरि के प्रेमानन्द-रसरूपी समुद्र में रात्रन्दिवा तैरते रहो । हरि का पावन नाम ले-लेकर नीच वासना का नाश कर दो और पूर्णकाम बन जाओ ।”
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श्रीरामकृष्ण - और वह गाना, ‘चिदानन्द-सागर में... ?’
नरेन्द्र गा रहे हैं - (भावार्थ) - "चिदानन्द-सागर में आनन्द और प्रेम की तरंगें उठ रही हैं; उस महाभाव और रासलीला की कैसी सुन्दर माधुरी है ! ....”
डाक्टर सरकार ने गानों को ध्यानपूर्वक सुना । जब गाना समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा, "यह गाना अच्छा है - 'चिदानन्द-सागर में ....’”
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डाक्टर को इस प्रकार प्रसन्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "लड़के ने बाप से कहा, "पिताजी, आप थोड़ीसी शराब चख लीजिये और उसके बाद यदि मुझसे कहेंगे कि मैं शराब पीना छोड़ दूँ, तो छोड़ दूँगा ।' शराब चखने के बाद बाप ने कहा, 'बेटा, तुम चाहो तो शराब छोड़ दो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मैं स्वयं तो अब निश्चय ही न छोडूँगा !'
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(डाक्टर तथा अन्य सब हँसते हैं)
"उस दिन माँ ने मुझे दो व्यक्ति दिखाये थे । उनमें से एक तुम (डाक्टर) थे । उन्होंने यह भी दिखाया कि तुम्हें बहुत ज्ञान होगा, पर वह शुष्क ज्ञान रहेगा । (डाक्टर के प्रति मुस्कराते हुए) पर धीरे-धीरे तुम नरम हो जाओगे ।"
डाक्टर सरकार चुप रहे ।
(क्रमशः)

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