शनिवार, 27 अप्रैल 2024

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*निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार ।*
*निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पहला प्रश्न:
भगवान, श्री शंकराचार्य तत्वज्ञान सिखाते हैं और साथ ही गोविन्द के भजन भी गाते हैं। क्या ज्ञान और भजन में, ज्ञान और भक्ति में कोई अंतर्संबंध है ?
ज्ञान निषेधात्मक है, भक्ति विधायक। ज्ञान ऐसा है जैसे कोई भूमि तैयार करे, घास-पात अलग करे, खाद डाले; और भक्ति ऐसी है जैसे कोई बीज बोए।
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ज्ञान अपने में अधूरा है। उससे सफाई तो हो जाती है, लेकिन बीज आरोपित नहीं होते। जरूरी है, काफी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो है बुद्धि का, भक्ति है हृदय की। परमात्मा के मार्ग पर जितनी बाधाएं हैं, वे तो ज्ञान से काटी जा सकती हैं; लेकिन जो सीढ़ियां हैं, वे भक्ति से चढ़ी जाती हैं। इसलिए ज्ञान निषेधात्मक है; व्यर्थ को तोड़ने में बड़ा कारगर है, सार्थक को जन्माने में नहीं।
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शंकर ज्ञान की बात कर रहे हैं, ताकि तुम्हारे भीतर अज्ञान की जो पर्त दर पर्त भीड़ लगी है, कट जाए। और जब एक बार मन की भूमि साफ हो गई, व्यर्थ का कचरा न रहा, कूड़ा-करकट न रहा, तो फिर भक्ति के बीज बोए जा सकते हैं; फिर भज गोविन्दम्‌ की संभावना है। विरोध नहीं है दोनों में; भक्ति ज्ञान की ही पराकाष्ठा है और ज्ञान भक्ति की ही शुरुआत है। क्योंकि मनुष्य के भीतर हृदय भी है, बुद्धि भी है। दोनों को छूना होगा। दोनों का रूपांतरण चाहिए।
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अगर तुम सिर्फ ज्ञान में ही उलझ गए, तो कोरे रेगिस्तान की भांति हो जाओगे--साफ-सुथरे, पर कुछ भी ऊगेगा नहीं; स्वच्छ, पर निर्बीज; विस्तीर्ण, पर न तो कोई ऊंचाई, न कोई गहराई। ज्ञान शुष्क है, अकेला। और अगर तुम अकेले भक्त हो गए, तो तुम्हारे जीवन में वृक्ष तो उगेंगे, फूल तो फलेंगे, हरियाली होगी, लेकिन उस हरियाली को बचाने के तुम्हारे पास उपाय न होंगे। तुम उन पौधों की रक्षा न कर पाओगे।
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अगर कोई संदेह जगाने आ गया, तो तुम्हारी उर्वर भूमि में संदेह के बीज भी पड़ जाएंगे, उनमें भी अंकुर आ जाएंगे। भक्त अगर ज्ञान की प्रक्रिया से न गुजरा हो, तो उसका भवन सदा डगमगाता रहेगा। कोई भी संदेह डाल सकता है। और भक्त तो विश्वास करना जानता है। 
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वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे ले जा रहे हैं; वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे भटका रहे हैं। वह गलत को भी पकड़ लेता है उसी तरह, जिस तरह ठीक को पकड़ता है। उसके पास सोचने-समझने की क्षमता नहीं; उसके पास विवेक नहीं। तो भक्त ऐसे है, जैसे अंधा हो; ज्ञान ऐसे है, जैसे लंगड़ा हो; और दोनों मिल जाएं तो परम संयोग घटित होता है।
Bhaj Govindam (भज गोविन्दम्) 02

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