शनिवार, 27 अप्रैल 2024

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*विष का अमृत नांव धर, सब कोई खावै ।*
*दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सुख होता है कि बड़े दुख के साथ अहंकार बड़ा होता है। छोटी—मोटी बीमारियां छोटे —मोटे लोगों को होती हैं। बड़ी बीमारियां बड़े लोगों को होती हैं ! छोटे—मोटे दुख, दो कौड़ी के दुख कोई भी भोग लेता है। तुम महंगे दुख भोगते हो। तुम्हारे दुख बहुत बड़े हैं। तुम दुखों का पहाड़ ढोते हो। तुम कोई छोटे—मोटे दुख से नहीं दबे हो। तुम पर सारी दुनिया की चिंताओं का बोझ है।
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तुम अपने दुखों को बड़ा करके बताते हो। तुम बढ़ा—चढ़ाकर बात करते हो। ओर कोई तुम्हारे दुख को छोटा करने की कोशिश करे, तो तुम उससे नाराज होते हो। तुम उसे कभी क्षमा नहीं करते ! आदमी बहुत अदभुत है। तुम अपने दुख की कथा कह रहे हो और कोई उदास होकर सुने, या उपेक्षा करे, तो तुम्हें चोट लगती है, कि मैं अपने दुख कह रहा हूं और तुम सुन नहीं रहे हो! तुम्हें चोट इस बात से लगती है कि तुम मेरे अहंकार को स्वीकार नहीं कर रहे हो ! मैं इतने दुखों से दबा जा रहा हूं; तुम्हें इतनी भी फुर्सत नहीं ?
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दुख के द्वारा तुम दूसरों का ध्यान आकर्षित करते हो। और अक्सर यह तरकीब मन में बैठ जाती है—गहरी बैठ जाती है—कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है। बचपन से ही सीख लेते हैं। छोटे—छोटे बच्चे सीख लेते हैं ! जब वे चाहते हैं, मां का ध्यान मिले, पिता का ध्यान मिले, लेट जाएंगे बिस्तर पर कि सिर में दर्द है ! स्त्रियों ने तो सारी दुनिया में यह कला सीख रखी है।
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मैं अनेक घरों में मेहमान होता था। मैं चकित होकर देखता था कि पत्नी ठीक थी, प्रसन्न थी, मुझसे ठीक—ठीक बात कर रही थी। उसके पति आए और वह लेट गयी ! उसके सिर में दर्द है ! पति से ध्यान को पाने का यही उपाय है। सिर में दर्द हो तो पति पास बैठता है। सिर में दर्द न हो, तो कौन किसके पास बैठता है ? और हजार काम हैं !
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और एक बार तुमने यह तरकीब सीख ली कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है, तो आदमी कुछ भी कर सकता है। तुम्हारे ऋषि—मुनि जो उपवास करके अपने को दुख दे रहे हैं, इसी तर्क का उपयोग कर रहे हैं जो स्त्रियां हर घर में कर रही हैं; बच्चे हर घर में कर रहे हैं।
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किसी ने तीस दिन का उपवास कर लिया है; और तुम चले दर्शन करने ! उसने दुख पैदा कर लिया है, उसने तुम्हारे ध्यान को आकर्षित कर लिया है। अब तो जाना ही होगा ! ऐसे और हजार काम थे। दुकान थी, बाजार था, लेकिन अब मुनि महाराज ने तीस दिन का उपवास कर लिया है, तो अब तो जाना ही होगा ! भीड़ बढ़ने लगती है। लोग काटो पर लेटे हैं। सिर्फ इसीलिए कि कीटों पर लेटे, तभी तुम्हारी नजरें उन पर पड़ती हैं। लोग अपने को सता रहे हैं।
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धर्म के नाम पर लोग हजार तरह की पीड़ाएं अपने को दे रहे हैं; घाव बना रहे हैं। जब तक तुम्हारे मुनि महाराज बिलकुल सूखकर हड्डी—हड्डी न हो जाएं, जब तक तुम्हें थोडा उन पर मांस दिखायी पड़े, तब तक तुम्हें शक रहता है कि अभी मजा कर रहे हैं ! अभी हड्डी पर मांस है। जब मांस बिलकुल चला जाए, जब वे बिलकुल अस्थि—पंजर हो जाएं, तुम कहते हो : वाह, यह है तपस्वी का रूप ! जब उनका चेहरा पीला पड़ जाए और खून बिलकुल खो जाए ।..... OSHO

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