शनिवार, 27 अप्रैल 2024

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*दादू जैसा ब्रह्म है, तैसी अनुभव उपजी होइ ।*
*जैसा है तैसा कहै, दादू विरला कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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यूनान में एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। तुमने भी सुनी होगी। एक पुरानी कथा है, कि देवता नाराज हो गए एक व्यक्ति पर। उसका नाम था प्रोमोथियस। वे उस पर नाराज हो गए, क्योंकि उसने देवताओं के जगत से अग्नि चुरा ली और आदमियों के जगत में पहुंचा दी।
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और अग्नि के साथ आदमी बड़ा शक्तिशाली हो गया। उसका भय कम हो गया, उसका भोजन पकने लगा, उसके घर में गर्मी आ गई, जंगली जानवरों से रक्षा होने लगी। और जितना आदमी मजबूत हो गया, उतनी उसने देवताओं की फिक्र करना बंद कर दी। प्रार्थना, पूजा क्षीण हो गयी।
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प्रोमोथियस पहला वैज्ञानिक रहा होगा, जो अग्नि को पैदा किया। देवता बहुत नाराज हो गए, क्योंकि उनकी पूजा-पत्री में बड़ा भग्न हो गया। सारी व्यवस्था टूट गयी। आदमी डरे न, कंपे न। उसके पास अपनी आग हो गई बचाने के लिए। 
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तुम सोच भी नहीं सकते कि आदमी आग के बिना कैसा रहा होगा। बड़ा भयभीत ! रात सो नहीं सकता था क्योंकि जंगली जानवर ! रात भयंकर अंधकार था। सिवाय भय के और कुछ भी नहीं। रात में ही बच्चे जंगली जानवर ले जाते, आदमियों को ले जाते, पत्नियों को ले जाते; सुबह पता चलता। रात बड़ी भयंकर थी।
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उसका भय अभी भी आदमी के मन में मौजूद रह गया है। करोड़ों साल बीत गए, लेकिन भय अभी रात में सरकने लगता है फिर से। तुम्हारे अचेतन मन में तुम अब भी वही आदमी हो, जिसके पास अग्नि न थी। फिर अग्नि ने बड़ी सुरक्षा दी। अग्नि सबसे बड़ी खोज है। अभी तक भी अग्नि से बड़ी खोज नहीं हो पाई। एटम बम भी उतनी बड़ी खोज नहीं है।
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प्रोमोथियस पर देवता नाराज हुए। उन्होंने उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, जमीन पर भेज दिया। फिर उसे कष्ट देने के लिए, उसे पीड़ा में डालने के लिए उन्होंने एक स्त्री रची। पिंडोरा उस स्त्री का नाम है। उसको उन्होंने बड़ा सुंदर रचा। सौंदर्य के देवता ने उसको सौंदर्य दिया, बुद्धि के देवता ने उसे प्रतिभा दी, नृत्य के देवता ने उसको पदों में नृत्य भरा, संगीत के देवता ने उसके कंठ को संगीत से सजाया; ऐसे सारे देवताओं ने मिलकर पिंडोरा बनाई।
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पिंडोरा जैसी कोई सुंदर स्त्री नहीं हो सकती; क्योंकि सारे देवताओं की सारी सृजनशक्ति उस पर लग गई। वह प्रोमोथियस को भ्रष्ट करने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर भेजी। और उसके साथ चलते वक्त उन्होंने एक पेटी दे दी–एक संदूकची, जो बड़ी प्रसिद्ध है: “पिंडोरा की मंजूषा" और कहा, कि इसे खोलना मत। कभी भूलकर मत खोलना।
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देवता चाहते थे, कि वह खोले। इसलिए उन्होंने कहा कि इसको खोलना मत, भूलकर मत खोलना। इसको खोलना ही नहीं है, चाहे कुछ भी हो जाये ! स्वभावतः देवता कुशल हैं, चालाक हैं, जिस चीज को खुलवाना हो, उसके लिए यह जिज्ञासा भर देनी, कि खोलना मत, उचित है। अगर वे कुछ न कहते तो शायद पिंडोरा भूल भी जाती उस संदूकची को। लेकिन उस दिन से उसको दिन रात एक ही लगा रहता मन में, कि उस संदूक में क्या है ?
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बड़ी सुंदर संदूक थी, हीरे-ज़वाहरातों से जड़ी थी। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। आधी रात में उठकर उसने संदूक खोलकर देख ली। संदूक खोलते ही वह घबड़ा गई। उसमें से भयंकर मनुष्य जाति के दुश्मन निकले–क्रोध, लोभ, मोह, काम, भय, ईष्या, जलन ! एकदम पिंडोरा की संदूकची खुल गई और उसमें से निकले ये सारे भूत-प्रेत और सारी पृथ्वी पर फैल गए।
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घबड़ाहट में उसने संदूकची बंद कर दी, लेकिन तब तक देर हो चूकी थी। सब निकल चुके थे, संदूकची में जो-जो थे, सिर्फ एक तत्व रह गया; उस तत्व का नाम है: आशा। बाकी सब निकल गए, संदूक बंद हो गई। सिर्फ आशा, होप भीतर रह गई। कहानी का अर्थ है, कि लोभ, काम, क्रोध सब तुम्हें बाहर से सताते हैं। आशा तुम्हें भीतर से सताती है।
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आशा यानी कल्पना ! सपना ! इंद्रधनुष ! जैसा है नहीं, उसकी कामना। उसका भरोसा, जैसा कभी नहीं होगा। तुम भी अपने यथार्थ क्षणों में जानते हो, ऐसा कभी नहीं होगा, लेकिन सपना तुम्हें पकड़ता है तो तुम भी मानने लगते हो, कि ऐसा ही होगा। वह पिंडोरा की संदूकची में आशा भीतर बंद है–कल्पना, आशा का जाल।
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कबीर कहते हैं, “गुरुदेव बिना जीव की कल्पना ना मिटै।" बिना उस आदमी से मिले, जिसकी कल्पना मिट गई हो, और जिसने सत्य को जाना हो, जिसने सत्य को रंगने-पोतने की व्यवस्था छोड़ दी हो, जिसने सत्य को वैसा ही जाना हो जैसा है, जिसने यथार्थ में अपनी आंखों से कुछ भी उड़ेलना बंद कर दिया हो, जिसने अपने मन के जाल को बाहर फैलाने से रोक लिया हो, जिसने मन ही तोड़ दिया हो, जो अ-मन हो चुका हो।
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जब तक वह तुम्हें न मिले जाये, कौन तुम्हें तुम्हारी कल्पना से जगाए ? कल्पना: माया। कल्पना–नींद में आंख बंद आदमी का सपना। कितना ही सुंदर हो, लेकिन झूठा। और हमारी तकलीफ यह है, कि हम झूठ को भी मान लेते हैं, सुंदर होना चाहिए। और सत्य कठोर है। ऐसा नहीं, कि वह सुंदर नहीं है, लेकिन उसके सौंदर्य में एक कठोरता है–होगी ही।
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वह तुम्हें मालूम पड़ती है कठोरता, क्योंकि तुम सपनों के सौंदर्य में धीरे-धीरे इतने आदी हो गए हो, कि यथार्थ की सख्ती और यथार्थ का यथार्थ तुम्हारे सपनों को तोड़ता मालूम पड़ता है। तुम सपनों के साथ-साथ धीरे-धीरे बहुत कमजोर हो गए हो। इसलिए सत्य को झेल नहीं पाते।
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तुम सत्य को भी झेलना चाहो, तो उसके ऊपर झूठ की थोड़ी सी पर्त चाहिए। तुम सत्य को सीधा-सीधा साक्षात नहीं कर पाते। तुम घबड़ाते हो, कि कहीं तुम मिट न जाओ, कहीं तुम टूट न जाओ। तुम कमजोर हो गए हो कल्पना के साथ। कल्पना ने तुम्हें शक्ति तो नहीं दी, तुम्हारी सारी शक्ति छीन ली है।
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गुरु का अर्थ है, जो तुम्हें धीरे-धीरे, कदम-कदम, हाथ पकड़ कर ले चले सत्य की तरफ। जो धीरे-धीरे तुम्हारी कल्पना से तुम्हें छुड़ाए।
ओशो

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