मंगलवार, 7 मई 2024

*श्री रज्जबवाणी, शूरातन का अंग(५) ~ १.३२*

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*साचा सिर सौं खेल है,*
*यह साधुजन का काम ।*
*दादू मरणा आसँघै, सोई कहैगा राम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
शूरातन का अंग (५)
जे परि शूर लहै सु महूरत, साहिब संग तहां शिर डारै ।
बाहर देखि खरो तिहिं ठाहर, शूर संग्राम मरै अरू मारै ॥
शरीर को सोच करै न डरै, कछु आ रण मांहि अर्यों१ ललकारे ।
हो रज्जब राम के काम तजै, तन ताहि निरंजन नाथ बधारै२ ॥१॥
संत शूर का परिचय दे रहे हैं -
यदि संत शूर को सु मुहूर्त मिल जाय अर्थात योग संग्राम का सु अवसर मिल जाय तो स्वामी के साथ रहने के लिये वहां ही अपना अहंकार रूप शिर डाल देता है ।
प्रभु प्राप्ति के अंतर साधन रूप स्थान में खड़ा रहकर बाहर कामादि दोषों को देखता है और वह संत-शूर योग संग्राम में कामादि को मारकर अपनी जीवत्त्व भावना से आप भी मरता है अर्थात जीवत्त्व भावना को नष्ट करता है ।
शरीर की चिंता नहीं करता और न डरता ही है । रण में आकर शत्रु१ समूह को ललकारता है ।
हे सज्जनों ! इस प्रकार राम के कार्य में शरीर त्यागता है, उसे ही निरंजन स्वामी बधाई२ देते हैं ।
(क्रमशः)

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