रविवार, 5 मई 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ५७/६०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ५७/६०*
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सौ अरध५ आगै उभै तत, द्वै अक्शर निज सार ।
कहि जगजीवन रांम रटि, अब जन उतरै पार ॥५७॥
(५. अरध=अर्ध =आधा भाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में तत्व दो अक्षर का नाम राम ही है इसके स्मरण से ही जन पार होते हैं ।
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अक्शर अक्शर सब गिने, नव दस अर तेतीस ।
कहि जगजीवन उभै उरि, ररौ ममौ धरि सीस ॥५८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम राम सब स्मरण करते हैं चाहे वे नव ग्रह हो दस दिशायें हो, या तैतीस करोड़ देवी देवता हो सब रंकार का र मकार का म से बने राम शब्द को सिमर कर ही सिर पर रखकर ह्रदय में धारण कर पार पाते हैं ।
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नारी पंच रोवति रीझै, पुरिष न रीझै रोइ ।
कहि जगजीवन रांम निरंजन, निराकार घर जोइ ॥५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आत्मरुपी स्त्री रोकर पांच इन्द्रियों को वश में कर लेती है उसका रोना प्रभु के लिये होता है किन्तु मन रुपी पुरुष रो कर प्रभु को द्रवित नहीं करता उसे तो दौड़ना ही होता है वह संसार में भागता है । हे जीव परमात्मा जो निरंजन देव है, निराकार ब्रह्य है उनके घर की प्रतीक्षा कर ।
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ब्रिषभ न समझै बात हरि, उभै सीस पति जास ।
यहु गति मंहिं उनहारि नर, सु कही जगजीवनदास ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विषयों में भ्रमित जीव प्रभु मार्ग को नहीं जानता अतः वह पतनोन्मुख होता है । जो प्रभु की गति ग्रहण करता है वह उन ही जैसा हो जाता है ।
(क्रमशः)

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