शुक्रवार, 3 मई 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.३१*

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*दादू विरह वियोग न सहि सकूँ,*
*तन मन धरै न धीर ।*
*कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग (४)
हरि वियोग विघ्न मूल अंतरा१ अनंत शूल२,
पति परदे३ पाप मूल४ मन वच कर्म मानी ।
विरचि५ बींद६ विपत्ति हाल७ गुपत कंत कीन्हो काल,
सन्मुख नांहिं सु साल८ सुन्दरी जिय जानी ॥
अबोलनो९ अनीसु१० सार पीय पीठ बहत धार,
मन मरोर११ मीच मार या सम नाहीं हानी ।
दीर्घ दुख दिल न ठौर तुपक१२ तीर तरक१३ त्यौर१४,
बैन बाघ कहत और रज्जब धन१५ भानी१६ ॥६॥३१॥
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हरि का वियोग विघ्नों का मूल हेतु है, उनका भेद१ अनन्त दुख२ दाता है । अपने और स्वामी के बीच में पड़दा३ होने में पाप ही हेतु४ है, यह बात मन वचन और कर्म से मैंने मान ली है ।
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स्वामी६ ने उत्पन्न५ करके विपत्ति की दशा७ में डाल दिया है और गुप्त होकर स्वामी ने ही वियोग रूप काल खड़ा कर दिया है, स्वामी के सन्मुख न आने से दुख८ है ।
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यह मुझ साधक-सुन्दरी ने अपने हृदय में जान लिया है । प्रभु का न९ बोलना सार की अणी१० चुभने के समान है । प्रियतम के पीठ देते ही मानो हृदय में करवत की धार चल रही है ऐसा दुख होता है । मन को मरोड़११ कर मृत्यु मार रही है ।
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इस प्रभु वियोग के समान अन्य हानि नहीं है बड़ा दुख है, हृदय को टिकाने के लिये कही भी स्थान नहीं है । उन प्रभु की त्याग१३ की दृष्टि१४ बन्दूक१२ और बाण के आघत के समान हो रही है । दूसरे लोग जो वचन कहते हैं वे मानो बाध बन कर खाने को आ रहे हैं । इस प्रकार प्रभु-वियोग से मैं नारी१५ मरी१६ जा रही हूँ ।
(क्रमशः)

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