गुरुवार, 25 जुलाई 2024

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*जोग न ध्यान ज्ञान गम नांही,*
*समझ समझ सब हारे ।*
*उनमनी रहत प्राण घट साधे,*
*पार न गहत तुम्हारे ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*गीता का दर्शन शाश्त्र (256)*
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*(अध्‍याय-7)*
*श्रद्धा का सेतु*
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥२१॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥२२॥
जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है।
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प्रभु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोई, यह महत्वपूर्ण नहीं है; और किस मंदिर से प्रवेश किया उसने, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को माना, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता है, कि कृष्ण को भजता है, कि जीसस को भजता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता है, इससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच सेतु निर्मित करता है, वे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर है; वह श्रद्धा ही सार्थक है।
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इसे ऐसा समझें कि यदि परमात्मा का सवाल भी न हो, और कोई व्यक्ति परम श्रद्धा से आपूरित हो; किसी के प्रति भी नहीं, सिर्फ श्रद्धा का उसके हृदय में आविर्भाव होता हो, श्रद्धा उसके हृदय से विकीर्णित होती हो; किसी के चरणों में भी नहीं, लेकिन उसके भीतर से श्रद्धा का झरना बहता हो, तो भी वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा। नास्तिक भी पहुंच सकता है वहां, अगर उसके हृदय से श्रद्धा के फूल झरते हैं। और आस्तिक भी वहां नहीं पहुंच पाएगा, अगर उसके जीवन में श्रद्धा का झरना नहीं है।
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तो श्रद्धा को थोड़ा इस सूत्र में ठीक से समझ लेना जरूरी है।
श्रद्धा से क्या अर्थ है ? श्रद्धा से अर्थ, विश्वास नहीं है, बिलीफ नहीं है। यह बहुत मजे की बात है कि जो लोग भी विश्वास करते हैं, वे अविश्वासी होते हैं। उनके भीतर अविश्वास छिपा होता है। उसी अविश्वास को दबाने के लिए वे विश्वास करते हैं। 
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भीतर अविश्वास होता है, उसे दबाने के लिए, उसे झुठलाने के लिए, भुलाने के लिए, मिटाने के लिए, वे विश्वास करते हैं। लेकिन भीतर का अविश्वास और गहरे उतर जाता है, मिटता नहीं है। विश्वासी कभी भी अविश्वास को नहीं मिटा पाता। क्योंकि विश्वास होता ही किसी अविश्वास के खिलाफ है। विश्वास की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है।
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श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है, इस बात को ठीक से समझ लें।
श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है। जिसके हृदय में अविश्वास नहीं है, वह विश्वास भी नहीं करता, क्योंकि विश्वास किसलिए करेगा ! एक आदमी जब कहता है कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं, तब वह जितना जोर लगाकर कहता है कि मैं विश्वास करता हूं, जानना कि उतना ही ताकतवर अविश्वास भीतर बैठा है। वह उसी अविश्वास को इतना जोर लगाकर दबाता है। अन्यथा अविश्वास न हो, तो विश्वास करने का कोई कारण नहीं रह जाता।
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आप कभी भी ऐसा नहीं कहते कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। आप कभी नहीं कहते कि यह आकाश, जो चारों तरफ है मेरे, इसमें मैं विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। और अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैं सूरज में विश्वास करता हूं, तो क्या उसका विश्वास इस बात की खबर न होगा कि वह आदमी अंधा है ! सिर्फ अंधे ही सूरज में विश्वास कर सकते हैं। जिनके पास आंख है, उनकी सूरज में श्रद्धा होती है। श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास नहीं होता।
आप सूरज में विश्वास नहीं करते हैं, आप जानते हैं कि सूरज है। संदेह ही नहीं किया कभी, तो विश्वास करने का कोई सवाल नहीं है। बीमार ही नहीं हुए कभी, तो किसी दवा लेने की कोई जरूरत नहीं है।
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विश्वास जो है, एंटीडोट है डाउट का। वह जो संदेह भीतर बैठा है, उसको दबाने का इंतजाम है विश्वास। इसलिए आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। लेकिन कभी नहीं कहता कि मैं पदार्थ में विश्वास करता हूं। पदार्थ में कोई अविश्वास ही नहीं है, इसलिए विश्वास की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। और अगर कोई कहता हो, तो उसे शक होगा कि वह आदमी अंधा है। आंख वाला आदमी सूरज में विश्वास नहीं करता, श्रद्धा करता है।
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इस फर्क को आप ठीक से समझ लें। श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास उठता ही नहीं। विश्वास का अर्थ है, अविश्वास मौजूद है। किसी भय के कारण, किसी लोभ के कारण, वह जो अविश्वास मौजूद है, उसे हम दबा लेना चाहते हैं, छिपा लेना चाहते हैं, झुठला देना चाहते हैं, भुला देना चाहते हैं।
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धर्म की यात्रा पर विश्वास से काम नहीं चलता। विश्वास सब्स्टीटयूट है श्रद्धा का; लेकिन इमिटेशन, नकली; उससे काम नहीं चलता। इसीलिए तो दुनिया में इतने विश्वासी लोग हैं, फिर भी धर्म कहीं दिखाई नहीं पड़ता। विश्वासियों की कोई कमी है ? सच पूछा जाए, तो अधिकतम लोग विश्वासी हैं। वे जो अविश्वास करते हुए मालूम पड़ते हैं, वे भी विश्वासी हैं। सिर्फ उनके विश्वास नकारात्मक हैं।
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पृथ्वी विश्वासियों से भरी है, लेकिन धर्म की कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती। मंदिर, मस्जिद और चर्चों में विश्वासी प्रार्थना कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थना का आनंद कहीं विकीर्णित होता नहीं दिखाई पड़ता। वह हरियाली जो प्रार्थना से हमारे हृदय पर छा जानी चाहिए, नहीं छाती दिखाई पड़ती। हम रूखे के रूखे, सूखे के सूखे, मरुस्थल रह जाते हैं। कहते हैं कि प्रार्थना कर आए, लेकिन मरुस्थल का मरुस्थल रह जाता है, कोई वर्षा नहीं होती उस पर।
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विश्वास धोखा है श्रद्धा का, लेकिन धोखे से कुछ काम नहीं चलेगा। एक व्यक्ति संध्या अपने घर लौटा है। उसकी पत्नी का जन्मदिन है। आते ही उसने कहा कि देखती हो, हीरे की अंगूठी लाया हूं तुम्हारे लिए। पत्नी ने कहा, हीरे पर इतना खर्च क्यों किया ? इतने दिन से हम सोचते थे, अच्छा होता कि तुम एक कार ही खरीद लाते और मुझे भेंट कर देते। उस आदमी ने आंख बंद कर ली और फिर सिर ठोंका, और उसने कहा कि क्या करूं, इमिटेशन कार मिलती नहीं; नकली कार मिलती नहीं। नकली हीरा मिल जाता है। नकली कार मिलती होती, तो वह ले आता।
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श्रद्धा की जगह जिसने भी विश्वास को पकड़ा है, वह नकली हीरे को पकड़े हुए है। असली हीरे का उसे पता ही नहीं है। इसलिए विश्वासी बहुत डरता है कि कोई उसके विश्वास का खंडन न कर दे; कोई विपरीत तर्क न दे दे; कोई उलटी बात न कह दे; कहीं विश्वास डगमगा न जाए।
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ध्यान रहे, विश्वास डगमगाता ही रहेगा, क्योंकि विश्वास की कोई जड़ ही नहीं है। श्रद्धा नहीं डगमगाती। इसलिए श्रद्धा से ज्यादा अभय, फियरलेस, इस जगत में कोई भी चीज नहीं है। खुद भगवान भी आकर किसी श्रद्धावान हृदय को कहे कि भगवान नहीं है, तो वह कहेगा कि रास्ते से हटो ! लेकिन आपके विश्वास को तो एक छोटा-सा बच्चा डिगा सकता है। एक छोटा-सा बच्चा तर्क उठा दे, और आपके विश्वास मिट्टी में लोट जाते हैं।
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इसलिए कोई आदमी अपने विश्वासों की चर्चा नहीं करना चाहता। क्योंकि विश्वास की चर्चा करनी खतरनाक है। उसके नीचे कोई जड़ नहीं है। ऊपर-ऊपर है सब। जरा में गिर जाएगा।
ओशो ~ शुभ संध्या

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