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*घट घट राम रतन है, दादू लखै न कोइ ।*
*सतगुरु सब्दौं पाइये, सहजैं ही गम होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक राजधानी में एक भिखमंगा मरा। वह तीस साल तक एक ही जगह भीख मांगता रहा। जब मर गया तो गांव के लोगों ने उसे जलाया। और फिर गांव के लोगों ने सोचा, तीस साल यह इसी जगह बैठा रहा चौरस्ते पर, यह जगह भी गंदी हो गई है। गंदे कपड़े, ठीकरे, बर्तन-भांडे, सब वहीं रखे बैठा रहा। भिखारी तो भिखारी। तो उन्होंने कहा, इसकी थोड़ी मिट्टी भी यहां से निकालकर फेंक दो। यह मिट्टी भी गंदी कर डाली।
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तो उन्होंने मिट्टी निकाली। मिट्टी निकाली तो चकित रह गए। वहां एक बड़ा खजाना गड़ा था; बड़े हंडे गड़े थे। अशर्फियां निकलीं। सारे गांव में एक ही चर्चा हो गई कि यह भी खूब रही। यह भिखमंगा उसी जगह बैठा जिंदगी भर भीख मांगता रहा, जहां इतना खजाना गड़ा था।
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और ध्यान रखना, वह जो गांव में जिन लोगों ने चर्चा की और इस भिखमंगे के दुर्भाग्य पर रोए, उनमें से किसी ने यह न सोचा कि जहां से खड़े हैं, जहां वे हैं, वहां भी बड़े खजाने गड़े हैं। उससे भी बड़े खजाने गड़े हैं, अनंत खजाने गड़े हैं।
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हम सब उस भूमि पर खड़े हैं जहां अनंत खजाना गड़ा है। लेकिन आंख बाहर भटकती है और भीतर नहीं आती, और खजाना भीतर है। पद भीतर, धन भीतर, प्रतिष्ठा भीतर और तुम भटकते बाहर, इसलिए चूक हो जाती है। खूब भूले, खूब भटके, अब घर आओ।
आज इतना ही।
ओशो
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