शनिवार, 27 जुलाई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४१

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४१)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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४४१.
*आरती जगजीवन तेरी,*
*तेरे चरण कँवल पर वारी फेरी ॥टेक॥*
*चित चाँवर हेत हरि ढ़ारे,*
*दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारे ॥१॥*
*घंटा शब्द अनाहद बाजे,*
*आनन्द आरती गगन गाजे ॥२॥*
*धूप ध्यान हरि सेती कीजे,*
*पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजे ॥३॥*
*सेवा सार आत्मा पूजा,*
*देव निरंजन और न दूजा ॥४॥*
*भाव भक्ति सौं आरती कीजे,*
*इहि विधि दादू जुग जुग जीजे ॥४॥*
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हे जग-जीवन प्रभो ! हम सब आपकी आरती कर रहे हैं और आपके चरण-कमलों में सर्वस्व अर्पण कर रहे हैं । आपके मस्तक पर आपका चिन्तनरूप सफेद चंवर ढुला रहे हैं । ज्ञान का दीपक जला रहे हूं । जिसमें विचाररूपी ज्योति सदा जलती रहती है । अनाहतनाद रूप ध्वनि घंटा बज रहा है ।
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आपका ध्यान ही धूप है, सो वह अर्पण कर रहा हूं । मेरी श्रद्धा ही आपकी परिक्रमा है । प्रेम ही पुष्प है । वह आपको समर्पण कर रहा हूं । उपासक की सेवा ही पूजा है । निरंजनदेव ही उपास्य देव हैं और दूसरा देव उपास्य नहीं है । जो इस प्रकार मानसिकी पूजा करता है, वह ब्रह्म-वेत्ता प्रतियुग में जी रहा है । बाह्य पूजा की सामग्री से निराकार ब्रह्म की पूजा नहीं हो सकती, उसकी तो मानसी पूजा ही मानी गई है ।
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वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि –
जो ब्रह्म निर्लेप है, उसको गन्ध से क्या प्रयोजन ? और निर्वासन है उसको धूप से क्या लेना देना है ? जो निर्विशेष है उसको वेश भूषा से क्या मतलब है ? जो निरंजन तथा सर्वसाक्षी है, उसको धूप-दीप से क्या प्रयोजन है ? और जो निजानन्द में तृप्त है, उसको नैवद्य से क्या लाभ है ?
(क्रमशः)

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