शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

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*दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।*
*दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैं असंतुष्ट हूं; हर बात से असंतुष्ट। और कभी—कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं। ऐसा आदमी ही कभी नहीं हुआ कि आनंद जिसके भाग्य में न हो। हालाकि ऐसे आदमी करोड़ों हैं जो आनंद को अनुभव नहीं कर पाते। लेकिन भाग्य को दोष मत देना। यह अपना दोष भाग्य के कंधों पर मत फेंको। यह तरकीब मत करो। दोषी तुम हो, भाग्य नहीं। तुम्हारे भाग्य के तुम ही निर्माता हो।
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तुम असंतुष्ट हो तो अपने असंतोष को समझने की कोशिश करो कि क्यों असंतुष्ट हूं। तुम कारण खोज लोगे। उन कारणों को मत दोहराओ, असंतोष खो जाएगा। लेकिन कारण तुम खोजना नहीं चाहते। क्योंकि हो सकता है कारण तुम्हीं होओ, तुम्हारा होना ही कारण हो; यह तुम्हारा मैं जो संतुष्ट होना चाहता है, यही कारण हो; तो तुम उस खतरे को मोल नहीं लेना चाहते हो किसी पर दोष डाल दो।
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आदमी सदियों से दोष टालता रहा है। बहाने बदल लेता है, लेकिन दोष टालता है। पहले कहता था तो भाग्य। तुम पुराने ढंग के आदमी मालूम होते हो— भाग्य, भगवान ! फिर लोग बदले, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं बदले। मार्क्स ने कहा कि अगर तुम दुखी हो, तो समाज जिम्मेवार है। अब यह समाज भी वैसे ही थोथा शब्द है जैसे भाग्य, कुछ फर्क नहीं पड़ा।
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मार्क्स में मैं कोई बड़ी क्रांति नहीं देखता। क्योंकि असली क्रांति एक ही है कि तुम टालो मत, तुम दूसरे पर मत फेंको, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर मत चलाओ, बहाने मत खोजो, साक्षात करो सीधी—सीधे, अपने जीवन के रोग का ठीक—ठीक विश्लेषण करो, डायग्नोसिस करो, निदान करो, तो चिकित्सा भी हो सके, उपचार भी हो सके। लेकिन तुम बीमार हो और तुम कहते हो भाग्य। तो डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं, दवा लेने की कोई जरूरत नहीं—भाग्य की कोई दवा तो होती नहीं।
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या तुम कहते हो समाज। अब समाज बदलेगा तब बदलेगा, तब तक तुम न बचोगे। फिर फ्राँयड आया और फ्राँयड ने कहा कि न समाज, न भाग्य बल्कि तुम्हारा बचपन; तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता, उन्होंने तुम्हें ऐसे गलत संस्कार दिये, उन्होंने तुम्हें इस तरह से दमित किया, इसलिए तुम उलझे हो। अब यह तो तब दुबारा मां—बाप मिलें और बेहतर मां—बाप मिलें ! तो यह तो भूल हो चुकी, अब इसमें कोई उपाय नहीं।
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फ्राँयड ने कहा है—आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता है। कैसे होगा ? तुमने जो विधि बतायी, वह ऐसी है जो कि हो ही चुकी। तुमने पहली भूल कर ही दी कि अपने मां—बाप को चुना—ढंग के मां—बाप चुनने थे। मगर तुम चुनते कैसे ढंग के मा—बाप ? तुम थे कहा ? तुमने चुने कब ? यह तो घटना घटी। अब तो घट गयी, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। अब तो किसी तरह अपने को राजी कर लो, समझा—बुझा लो और चला लो, गुजार लो।
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न तो फ्राँयड ने कोई क्रांति की है, न मार्क्स ने कोई क्रांति की है। क्रांति तो की है बुद्ध ने। क्रांति तो की है महावीर ने। क्रांति तो की है कृष्ण ने, पतंजलि ने, जीसस ने। क्या क्रांति की ? उन्होंने कहा कि तुम्हारा हाथ है तुम्हारे असंतोष में। समझो। क्यों तुम असंतुष्ट हो, क्यों हर चीज तुम्हें असंतुष्ट करती है ? पहली तो बात, तुम्हारी मांगे असंभव होंगी। जैसे एक सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मुझे किसी स्त्री में रस नहीं आता, मैं एक परम सुंदर स्त्री चाहता हूं। एक पूर्ण स्त्री चाहता हूं।
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मैंने उन से कहा कि मैंने एक कहानी सुनी है एक आदमी की, वह भी पूर्ण स्त्री खोजना चाहता था। जिंदगीभर खोजता रहा, नहीं मिली। तो मित्रों ने पूछा कि तुमने जिंदगीभर खोजी और नहीं मिली? उसने कहा—ऐसा नहीं है कि नहीं मिली, मिली, एक बार मिली। तो फिर क्या हुआ ? तो उसने कहा कि दुर्भाग्य मेरा कि वह पूर्ण पुरुष खोज रही थी।
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अब तुम पूर्ण स्त्री खोजने चले हो, इसकी बिना फिक्र किये कि तुम पूर्ण पुरुष हो या नहीं। पूर्ण पुरुष हो जाओ तो शायद पूर्ण स्त्री मिल जाए—शायद तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हो। पूर्ण को पूर्ण दिखायी पड़ता है। अपूर्ण को तो पूर्ण दिखायी भी नहीं पड़ सकता, दिखायी भी पड़ जाए तो पहचान में नहीं आ सकता।
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अब तुम अगर पूर्ण स्त्री खोजने चले, तो दुख में रहोगे। तुम्हारी मांगे असंभव हैं, तो असंतोष होगा। मागों को सीमा में लाओ आदमी की। तुम मांगते ही चले जाते हो। तुम इसकी फिकिर ही नहीं करते कि मैं क्या मांग रहा हूं; यह मिल भी सकेगा कि नहीं ! तुम शाश्वत जीवन मांगते हो। यह देह सदा रहनी चाहिए। फिर मौत आती है तो असंतोष होता है। तुम कहते हो, यश मुझे ऐसा मिले जो सदा रहे। मगर हवा बदल जाती है।
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तुम्हारी लहर कभी चली, फिर किसी और की लहर चलने लगती है। आखिर किसी और की भी लहर चलने दोगे कि नहीं चलने दोगे ! तुम्हारी ही तुम्हारी चलती रहे तो बाकी लोग असंतुष्ट रह जाएंगे। और जब तुम्हारी चली थी तो किसी की रुक गयी थी, वह तुम भूल गये ? वह असंतुष्ट हो गया था। यश तो क्षणभंगुर होगा। यह तो पानी की लहर है—आयी और गयी।
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अब तुम चाहो कि यह शाश्वत हो जाए; तुम चाहो कि गुलाब का फूल जो सुबह खिला, अब कभी मुर्झाए न, तो फिर तुम प्लास्टिक के फूल खरीदो, तुम असली गुलाब न चाहो। लेकिन प्लास्टिक का फूल नकली मालूम पड़ता है, उस से दिल भरता नहीं। अब तुम एक असंभव मांग कर रहे हो। असली फूल से नकली फूल जैसे होने की मांग कर रहे हो। यह हो नहीं सकता, तो असंतोष होगा।
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परसों एक युवती पश्चिम से आयी। रोने लगी, कहने लगी कि जब मैं वहां से चली थी तो बड़ी आशाएं लेकर चली थी। यहां आयी हूं तो मैं अपने को बहुत साधारण पाती हूं। तो दुखी हो रही हूं। उसकी हालत समझो, वही तुम्हारी हालत होगी। चली होगी अपने घर से तो सोचा होगा कि जब आश्रम में पहुंचेगी, तो बैडबाजा बजेगा, कोई हाथी वगैरह पर बिठालकर जुलूस निकाला जाएगा, कोई स्वागत किया जाएगा।
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सभी के मन मे ऐसी धारणाएं होती हैं। सभी ऐसी कल्पनाओं में जीते है। फिर ये कल्पनाएं पूरी नहीं होतीं। न कोई जुलूस निकालता, न कोई हाथी—घोड़े पर बिठालता, न कोई बैडंबाजे बजाता—एकदम से लगता है, अरे, मैं साधारण ! जब चली होगी तो अपने गांव में अकेली संन्यासिनी थी। यहां आयी तो देखा कि यहा एक हजार संन्यासी। स्वभावत: एक संन्यासी हो एक गांव में तो सबकी नजर उस पर पड़ेगी।
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जहां एक हजार संन्यासी हों, कौन देखता है ? एक हजार संन्यासी में चेहरा ही खो जाएगा। सब गैरिक वस्त्रधारी एक जैसे मालूम होते है। साधारण मालूम होने लगी होगी। अब पीड़ित हो रही है। लेकिन पीड़ा किस कारण हो रही है ? असाधारण होने की आकांक्षा की थी। विशिष्ट होने की आकांक्षा की थी। उसी आकांक्षा ने यह कष्ट पैदा किया है। इसको न समझोगे तो कष्ट जारी रहेगा। अपनी साधारणता को स्वीकार करो।
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सुना नहीं तुमने शांडिल्य ने कहा कि परमात्मा विशिष्ट नहीं है, साधारण है, अविशिष्ट है। ऐसे ही तुम भी साधारण हो जाओ। झेन फकीर लिंची से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तो खाना खा लेता, जब प्यास लगती तो पानी पी लेता, और जब नींद आती तब सो जाता। 
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तो पूछने वाले ने कहा, लेकिन यह तो सभी साधारण लोग करते हैं ! तो लिंची ने कहा, मैं कौन असाधारण हूं ? मैं साधारणों में भी साधारण हूं। उस आदमी ने पूछा, फिर फायदा क्या है ? लिंची ने कहा, फायदा बहुत है, संतुष्ट हूं। और क्या फायदा। तुम अगर जीवन की छोटी—छोटी चीजों में रस लेने लगो, तो संतुष्ट हो जाओ।
~आचार्य रजनीश ओशो~अथातो भक्ति जिज्ञासा (शांडिल्य) प्रवचन--14

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