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*बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध ।*
*सो ले हिरदै राखिये, दादू सन्मुख साध ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक फकीर हुआ, बायजीद। जिस गांव में वह रहता है उस गांव का राजा उसे बहुत मानता है, बड़ा आदर देता है। लेकिन वह बायजीद कहता है कि तुम मुझे नाहक आदर वगैरह मत दो, क्योंकि जो लोग भी आदर देते हैं वे फिर किसी दिन अनादर भी देते हैं। तो तू मुझे बचा ! और वह इसलिए भी कहता है, वह राजा निरंतर कहीं किसी और फकीर के पास पहले उसके पास जाता था, वह ऐसा बेईमान निकल गया, वह फलां आदमी, फलां औरत के साथ देखा गया, वह फलां आदमी यह खा रहा था, वह पी रहा था।
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तो बायजीद कहता है कि देख, तू मुझे भी आदर मत दे। क्योंकि आज नहीं कल तू मेरे संबंध में भी यही बातें कहेगा। लेकिन वह राजा कहता कि नहीं आपकी बात ही और है। आपका तो कोई सवाल ही नहीं है। एक दिन राजा शिकार के लिए गया हुआ है, उसने देखा कि बायजीद झील के उस तरफ बैठा हुआ है, एक औरत के साथ। और वह औरत सुराही में से कुछ उसको डाल रही है। उस राजा ने कहा कि जिसको मैं इतना आदर देता हूं वह भी आखिर यह निकला !
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सोचा कि जरा घोड़ा बढ़ा कर नमस्कार तो कर ही दूं। ताकि फकीर को पता चल जाए कि मुझे पता पता चल गया है। वह घोड़ा बढ़ा कर आया, पास आकर उसने कहा कि नमस्कार ! तो फकीर ने उससे कहा कि तू इतनी दूर से लौट मत जाना और पास आ। पर उसने कहा कि अब कोई आने की जरूरत नहीं, बात ही खत्म हो गई है। उसने कहा कि नहीं, इतनी जल्दी खत्म मत कर, खत्म करने से पहले और थोड़ा पास आ जा।
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तो राजा आया। उसने कहाः क्या समझ रहे हैं ? क्या हो गया है ? उसने कहा कि यह क्या हो रहा है ? यह औरत, यह जंगल, यह अकेला, अकेला… उसने उसका बुर्का उघाड़ दिया, तो वह तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया राजा, वह उसकी मां थी। और उसने वह सुराही उंडेल दी, उसमें सिवाय पानी के और कुछ भी न था। फिर उस बायजीद ने कहा कि अब तुम जाओ, लेकिन बात अब खत्म हो गई। अब मेरे पास कभी मत आना।
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लेकिन राजा ने कहा कि मुझे माफ कर दो, उस फकीर ने कहा कि अब तक जितने लोग समझते हैं कि हमने दूसरे को बाहर से देख कर पहचान लिया, सब पहचान ऐसी है। बाहर से देख कर पहचान, सब पहचान ऐसी ही हैं–ये औरत, जंगल, शराब, बाहर की पहचान हैं, पहचान नहीं पाता। और पहचानने की जरूरत क्या है ? हम हैं कौन ?
ओशो, सहज मिले अविनाशी-५
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