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*दादू निबरा ना रहै, ब्रह्म सरीखा होइ ।*
*लै समाधि रस पीजिये, दादू जब लग दोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मौत में होता क्या है ? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केंद्र पर पहुंचती है। जो ऊर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने-कोने तक फैली हुई है, वह सारी ऊर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है। जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ आएगा, अंधकार घिरने लगेगा। प्रकाश सिकुड़ कर फिर दीये के पास आ जाएगा। अगर हम और धीमा करते जाएं और धीमा करते जाएं, तो फिर प्रकाश बीज-रूप में, अनुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।
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प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केंद्र पर। नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुड़ाव है, इसी सिकुडाव से, इसी संकुचन से पता चलता है कि मरा ! मैं मरा ! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है। हाथ-पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया। ये सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर तो किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था।
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ऊर्जा वापस लौटने लगी है। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। लगता है कि मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं? डूब रहा हूं? समाप्त हो रहा हूं। और इस घबराहट के कारण कि मैं मर रहा हूं, इस चिंता और उदासी के कारण, इस पीड़ा, इस एंग्विश के कारण, यह एंग्झायटी कि मैं मर रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं यह इतनी ज्यादा चिंता पैदा कर देती है मन में कि वह उस मृत्यु के अनुभव को भी जानने से वंचित रह जाता है। जानने के लिए चाहिए शांति। हो जाता है इतना अशांत कि मृत्यु को जान नहीं पाता।
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बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने व्याकुल और बेचैन और परेशान हो गए हैं कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना, कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस-पास से, लेकिन हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे। नहीं, मरने के क्षण में नहीं जाना जा सकता है मौत को। लेकिन आयोजित मौत हो सकती है। आयोजित मौत को ही ध्यान कहते हैं, योग कहते हैं, समाधि कहते हैं।
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समाधि का एक ही अर्थ है कि जो घटना मृत्यु में अपने आप घटती है, समाधि में साधक चेष्टा और प्रयास से सारे जीवन की ऊर्जा को सिकोड़ कर भीतर ले जाता है, जानते हुए। निश्चित ही अशात होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह प्रयोग कर रहा है भीतर ले जाने का, चेतना को सिकोड़ने का। वह शांत मन से चेतना को भीतर सिकोड़ता है। जो मौत करती है, उसे वह खुद करता है। और इस शांति में वह जान पाता है कि जीवन-ऊर्जा अलग बात है, शरीर अलग बात है। वह जो बल्ब, जिससे बिजली प्रगट हो रही है, अलग बात है, और वह जो बिजली प्रकट हो रही है वह अलग बात है। बिजली सिकुड़ जाती है, बल्ब निर्जीव होकर पड़ा रह जाता है।
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शरीर बल्ब से ज्यादा नहीं है। जीवन वह विद्युत है, वह ऊर्जा है, वह इनर्जी, वह प्राण है, जो शरीर को जीवित किए हुए है, गर्म किए हुए है, उत्तप्त किये हुए है। समाधि में साधक मरता है स्वयं, और चूंकि वह स्वयं मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जान लेता है इस सत्य को कि मैं हूं अलग, शरीर है अलग। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, तो मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, तो जीवन का अनुभव शुरू हो गया।
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मृत्यु की समाप्ति और जीवन का अनुभव एक ही सीमा पर होते हैं, एक ही साथ होते हैं। जीवन को जाना कि मृत्यु गई, मृत्यु को जाना कि जीवन हुआ। अगर ठीक से समझें तो यह एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। यह एक ही दिशा में इंगित करने वाले दो इशारे हैं। धर्म को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म है मृत्यु की कला। वह है आर्ट आफ डेथ। लेकिन आप कहेंगे, कई बार मैं कहता हूं धर्म है जीवन की कला, आर्ट आफ लिविंग।
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निश्चित ही दोनों बात मैं कहता हूं, क्योंकि जो मरना जान लेता है वही जीवन को जान पाता है। धर्म है जीवन और मृत्यु की कला। अगर जानना है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है, तो आपको स्वेच्छा से शरीर से ऊर्जा को खींचने की कला सीखनी होगी, तभी आप जान सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह ऊर्जा खींची जा सकती है। इस ऊर्जा को खींचना कठिन नहीं है। इस ऊर्जा को खींचना सरल है। यह ऊर्जा संकल्प से ही फैलती है और संकल्प से ही वापस लौट आती है। यह ऊर्जा सिर्फ संकल्प का विस्तार है, विल फोर्स का विस्तार है।
ओशो; मैं मृत्यु सिखाता हूं-(प्रवचन-01)
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