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*अति गति नींद कहा सुख सोवै,*
*यहु अवसर चलि जाइ ।*
*यहु तन विछुरैं बहुरि कहँ पावै,*
*पीछे ही पछिताइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*#पलटू अटक न कीजिए चौरासी घर फेर*
बड़ी मुश्किल से आदमी हुए हो--बड़ी मुश्किल से ! चौरासी कोटि योनियों के चक्कर काटते-काटते यह असंभव घटा है कि मनुष्य हुए हो। कितने तड़फे होओगे, मनुष्य होने के लिए कितनी-कितनी आकांक्षाएं, अभीप्साएं न की होंगी; कितनी प्रार्थनाएं न की होंगी ! और फिर मनुष्य जीवन का उपयोग क्या कर रहे हो ? उसे ऐसे गंवा रहे हो जैसे उसका कोई मूल्य ही नहीं।
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लोग बैठे ताश खेल रहे हैं, शतरंज खेल रहे हैं, लकड़ी के हाथी-घोड़े दौड़ा रहे हैं ! पूछो, क्या कर रहे हो ? कहते हैं, समय काट रहे हैं। समय ! एक पल भी खरीद न सकोगे-सिकंदर भी न खरीद सका। मरते वक्त सिकंदर ने अपने चिकित्सकों से कहा था, मुझे चौबीस घंटे बचा लो, बस चौबीस घंटे, और ज्यादा नहीं चाहता। कोई बहुत बड़ी आकांक्षा न थी।
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फिर सिकंदर चौबीस घंटे बचना चाहे, और न बच सके, तो फिर सिकंदर और भिखमंगे में भेद क्या रहा ? लेकिन चिकित्सक सिर झुका लिए। उन्होंने कहा, असंभव है। मौत तो आ गई। अब तो पल-दो पल के मेहमान हैं आप। चौबीस घंटे बचाए नहीं जा सकते। सिकंदर क्यों चौबीस घंटे बचना चाहता था ! एक छोटा-सा वचन दिया था।
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जब निकला था विश्व--विजय की यात्रा पर, तो सिकंदर की मां ने कहा था: बेटा, लंबी यात्रा है, कठिन यात्रा है, अच्छा तो यह होता कि इस झंझट में तू न पड़ता, लेकिन तू मानता नहीं; मैं बूढ़ी हो गई हूं, तुझे दोबारा देख पाऊंगी या नहीं ? तो सिकंदर ने कहा था, मैं वचन का पक्का हूं, तू जानती है कि मैं वचन का पक्का हूं, जो कहूंगा वह करूंगा, लौट कर आऊंगा--हर हाल लौट कर आऊंगा।
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और सिकंदर लौट रहा था वापस हिंदुस्तान से। फासला केवल इतना था कि अगर चौबीस घंटे का अवसर और मिल जाता तो वह अपना वचन पूरा कर लेता। बस कुछ ही कोसों की दूरी पर उसकी मृत्यु हुई घर से। वचन अधूरा रह गया। वचन देने में ही भूल हो गई। वचन देते समय याद न रखा कि मैं वचन का कितना ही पक्का होऊं, लेकिन मौत बीच में आ जाएगी तो मैं क्या करूंगा ?
महाभारत में प्यारी कथा है। पांडव वनवास कर रहे हैं, अज्ञातवास कर रहे हैं। एक भिखमंगे ने सुबह-सुबह द्वार पर दस्तक दी, अपना भिक्षापात्र फैलाया। युधिष्ठिर द्वार पर ही बैठे हैं--धर्मशास्त्र पढ़ रहे हैं। धर्मराज हैं, सो धर्मशास्त्र पढ़ते होंगे। भिखमंगे से कहा: कल आना। भीम भी पास ही बैठा हुआ मालिश कर रहा है अपने शरीर की--और क्या कर रहा होगा ! दंड-बैठक लगा रहा होगा, और क्या कर रहा होगा ! कि गदा घुमा रहा होगा !
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उसने यह सुना, उसने जल्दी से एक घंटा लिया और बजाता हुआ गांव की तरफ भागा। युधिष्ठिर ने पूछा : कहां जाता है ? उसने कहा, मैं जरा गांव में खबर कर आऊं कि मेरे भाई ने मृत्यु पर विजय पा ली। क्योंकि उन्होंने एक भिखमंगे को कहा: कल आना, कल तुझे भिक्षा देंगे। कभी-कभी युधिष्ठिर जैसे धर्म--पंडित को भी जो बात चूक जाए, वह भीम जैसे सीधे-सादे आदमी को समझ में आ जाती है।
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बात तो युधिष्ठिर को चोट कर गई, भागे, भीम से कहा: रुक; भिखारी को बुला कर लाए--कि नहीं, कल का आश्वासन ठीक नहीं। कल का क्या भरोसा है ? मैं तो सिर्फ टालने के लिए कि अभी किताब पढ़ रहा हूं, बीच में तुम बाधा डालने आ गए-कल आ जाना। मगर भीम ठीक कहता है। कल आए, न आए। मैं न रहूं, तुम न रहो, वचन पूरा न हो सके। तुम भीख आज ही ले जाओ।
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हम टालते चले जाते हैं। समय को काटते हैं--जिसका इतना मूल्य है कि सिकंदर ने अपने चिकित्सकों को कहा कि मैं अपना आधा राज्य भी देने को तैयार हूं, मुझे बचा लो; मैं अपना पूरा राज्य भी देने को तैयार हूं, मुझे बचा लो; मैं अपने वचन को पूरा करना चाहता हूं; लेकिन चिकित्सकों ने कहा, पूरा राज्य दें, या न दें, अब इससे कुछ भेद नहीं पड़ता, जिंदगी खरीदी नहीं जा सकती, बात खतम हो गई।
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सिकंदर की आंखों से, कहते हैं, आंसू झलके और सिकंदर ने कहा : काश, मुझे कोई यह बात पहले कह देता कि जिस राज्य को जीतने मैं चला हूं, जिस राज्य को जीतने में सारी जिंदगी गंवा रहा हूं, वह पूरा-का-पूरा राज्य देकर चौबीस घंटे भी न खरीद सकूंगा, तो मैंने जिंदगी ऐसे न गंवाई होती! मगर मुझे किसी ने कहा नहीं। ऐसा तो नहीं है कि किसी ने न कहा हो। मुझे पक्का पता है कि एक आदमी ने सिकंदर को कहा था, उसका नाम #डायोजनीज था।
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#पलटू जैसा आदमी रहा होगा। मस्त मौला। नंग-धड़ंग रहता था नदी के किनारे। कुछ भी न था उसके पास। एक तरफ सिकंदर, जो सारी दुनिया की मालकियत का दीवाना और एक तरफ था डायोजनीज--नंग-धड़ंग। पहले तो एक भिक्षापात्र भी अपने पास रखता था, लेकिन एक दिन वह भी छोड़ दिया। बुद्ध तो भिक्षापात्र कम से कम रखते थे, डायोजनीज ने वह भी छोड़ दिया था।
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एक दिन भिक्षापात्र को लेकर नदी की तरफ जा रहा था, प्यास लगी थी, पानी पीने, तभी एक कुत्ता भी हांफता हुआ पास से गुजरा और उससे पहले पहुंच गया नदी में और जाकर पानी पीने लगा। डायोजनीज ने कहा, हद्द हो गई; मात दे दी मुझे इस कुत्ते ने ! बिना भिक्षापात्र के ही...! और अगर कुत्ता बिना भिक्षापात्र के जी सकता है, तो फिर मैं क्यों परेशान होऊं, इसको मैं क्यों ढ़ोता फिरूं ? वहीं नदी में बहा दिया। कुत्ते से दोस्ती कर ली। दोस्ती दोनों की जम गई। कुत्ता और डायोजनीज, दोनों साथ-ही-साथ रहने लगे।
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रहता भी क्या था, एक टीन का पोंगरा था--कचराघर का जो पोंगरा होता है टीन का, जिसमें कचरा फेंकते हैं; वह पोंगरा सड़ गया था तो गांव के लोगों ने उसे गांव के बाहर नदी के किनारे डाल दिया था। वह उसी पोंगरी में रहता था। उसी में कुत्ता भी रहने लगा था। सिकंदर से उस डायोजनीज ने निश्चित कहा था कि जो करना हो वह अभी कर लो, कल पर मत टालो।
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सिकंदर डायोजनीज से मिलने गया था और डायोजनीज ने पूछा था कि कहां जा रहे हो ? उसने कहा था : विश्व-विजय की यात्रा पर। डायोजनीज ने पूछा: फिर क्या करोगे ? उसने कहा : फिर क्या करूंगा ? फिर विश्राम करूंगा। तो डायोजनीज ने कहा, यह तो हद्द हो गई ! अपने कुत्ते से कहा कि सुन भाई, देखता है हद्द हो गई ! हम अभी विश्राम कर रहे हैं दोनों, सिकंदर कहता है सारी दुनिया जीत लूंगा फिर विश्राम करूंगा ! सारी दुनिया का जीतना और विश्राम, इसमें कोई तार्किक संबंध है, इसमें कोई गणित है ?
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जब हम बिना दुनिया को जीते मजे से विश्राम कर रहे हैं, तो तुम्हें क्या अड़चन है विश्राम करने में ? इतनी झंझट लेकर फिर विश्राम करोगे ? छोड़ो झंझट, नदी का किनारा बड़ा है। और यह हमारा जो पोंगरा है, यह भी कोई छोटा नहीं। पहले मैं अकेला रहता था, फिर यह कुत्ता भी रहने गला--तुम भी रहने लगो। वर्षा-धूप में काम दे देता है, वैसे तो नदी के तट पर गुजर जाता है। और तट बड़ा है, तुम भी विश्राम करो। दुनिया जीतने चले हो !
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सिकंदर झुका। सिर झुक गया। कहा कि क्षमा करना, बात तो ठीक लगती है; मगर बीच से लौट नहीं सकता। यात्रा तो यह मुझे पूरी करनी होगी। एक कसम ले ली कि दुनिया जीत कर रहूंगा। डायोजनीज ने कहा : कसमें! हमारी कसमें!! हमारे वचन!! इनका मूल्य क्या है ? ये सब अहंकार की घोषणाएं हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि यात्रा पूरी करके वापस न लौट सकोगे--कोई कभी यात्रा पूरी करके वापस नहीं लौटता। इस दुनिया की सभी यात्राएं बीच में टूट जाती हैं।
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दस साल का बच्चा मर जाए तो हम कहते हैं। असमय मृत्यु। और सत्तर साल का आदमी मरता है तब हम नहीं कहते असमय मृत्यु, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं : सभी मृत्युएं असमय होती हैं। क्योंकि सत्तर साल वाला बूढ़ा भी अभी मरने की तैयारी नहीं कर रहा था। अभी वह भी कल के लिए राजी था कि कल होगा। सभी मृत्युएं असमय हैं, क्योंकि तैयार ही कोई नहीं है। असमय का क्या अर्थ होता है ? बिना तैयारी के।
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*सिर्फ उसकी मृत्यु असमय नहीं है, जिसने भजन किया।*
*भजि लीजौ भगवान, एहि में भला है अपना*
*बस, एक ही भला है इस जगत में, एक ही श्रेयस, एक ही मंगल-भजि लीजौ भगवान।
ओशो; सपना यह संसार--(प्रवचन--3)
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