शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

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*यहु सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ ।*
*दादू चिलका देखि कर, सत कर जाना सोइ ॥*
*छलावा छल जायगा, सपना बाजी सोइ ।*
*दादू देख न भूलिये, यहु निज रूप न होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कहते हैं सिकंदर जब भारत आया और पोरस पर उसने विजय पा ली, तो एक कमरे में चला गया, एक तंबू में चला गया, और रोने लगा। उसके सिपहसालार, उसके सैनानी बड़े चिंतित हो गए। उन्होंने कभी सिकंदर को रोते नहीं देखा था। उसे कैसे व्यवधान दें, कैसे बाधा डालें—यह भी समझ में नहीं आता था। फिर किसी एक को हिम्मत करके भेजा।
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उसने भीतर जा कर सिकंदर को पूछा ‘आप रो क्यों रहे हैं ? और विजय के क्षण में ! अगर हार गए होते तो समझ में आता था कि आप रो रहे हैं। विजय के क्षण में रो रहे हैं, मामला क्या है ? पोरस रोए, समझ में आता है। सिकंदर रोए ? यह तो घड़ी उत्सव की है। ‘सिकंदर ने कहा, इसीलिए तो रो रहा हूं। अब दुनिया में मुझे जीतने को कुछ भी न बचा। अब दुनिया में मुझे जीतने को कुछ भी न बचा, अब मैं क्या करूंगा ?
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शायद पोरस न भी रोया हो, कोई कहानी नहीं पोरस के रोने की। क्योंकि पोरस को तो अभी बहुत कुछ बचा है; कम से कम सिकंदर को हराना तो बचा है; अभी इसके तो उसको दांत खट्टे करने हैं। मगर सिकंदर के लिए कुछ भी नहीं बचा है। वह थर्रा गया। सारी व्यस्तता एकदम समाप्त हो गई। आ गया शिखर पर ! अब कहां ? अब इस शिखर से ऊपर जाने की कोई भी सीढ़ी नहीं है।
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अब क्या होगा ? यह घबड़ाहट सभी सफल आदमियों को होती है। धन कमा लिया, पद पा लिया, प्रतिष्ठा मिल गई, लेकिन इतना करते-करते सारा जीवन हाथ से बह गया। एक दिन अचानक सफल तो हो गए, और एक साथ ही उसी क्षण में, पूरी तरह विफल भी हो गए। अब क्या हो ? राख लगती है हाथ। व्यस्त आदमी आखिर में राख का ढेर रह जाता, अंगार तो बिलकुल ढक जाती या बुझ जाती है।
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थोड़े-थोड़े अव्यस्त क्षण खोजते रहना। कभी-कभी थोड़ा समय निकाल लेना अपने में डूबने का। भूल जाना संसार को। भूल जाना संसार की तरंगों को। थोडे गहरे में अपनी प्रशांति में, अपनी गहराई में थोड़ी डुबकी लेना। तो तुम्हें भी समझ में आएगा तभी समझ में आएगा—किस बात को जनक कहते हैं : इति ज्ञान ! यही ज्ञान है।
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‘अहो, मैं चैतन्य-मात्र हूं ! संसार इंद्रजाल की भांति है। इसलिए हेय और उपादेय की कल्पना किसमें हो ?’ अब मुझे न तो कुछ हेय है, न कुछ उपादेय है। न तो कुछ हानि, न कुछ लाभ। न तो कुछ पाने-योग्य, न कुछ डर कि कुछ छूट जाएगा। मैं तो सिर्फ चैतन्यमात्र हूं। यही तो मुक्ति है।
ओशो; अष्टावक्र महागीता/ 2-- प्रवचन 23  

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