मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

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*पढे न पावै परमगति, पढे न लंघै पार ।*
*पढे न पहुंचै प्राणियां, दादू पीड़ पुकार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*न पानी कहीं न चांद कहीं*
दुनिया की कोई भी पुस्तक हो, हम सब उसके चिन्तन का दो बूंद पानी तो उससे जरूर लेते हैं, और इस तरह से अपने मन-मस्तक की मटकी को भरते चले जाते हैं और फिर जब उस पानी में चांद की परछाई दिखती है, हमें पानी से मोह हो जाता है।
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चिउनो एक जैन संन्यासिन थी, जो बरसों ज्ञान को अर्जित करती रही, उस पानी से भरी मटकी को उठाकर चलती रही और फिर जिस तरह गौतम एक वृक्ष के नीचे बरसों-बरसों बैठे रहे, और एक दिन अचानक अंतर की रोशनी का रहस्य पा लिया, कुछ उसी तरह चिउनो की मटकी अचानक टूट गई पानी बह गया, और उसने देखा--न पानी कहीं, न चांद कहीं। तो उसने सर उठाकर आसमान के चांद का सीधा दीदार पा लिया।
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पुस्तकों से जो भी अर्जित किया जाता है, और सहेज लिया जाता है, वह किसी दूसरे का होता है, वह कभी अपना पता नहीं देता। अपना पता तो अनुभव से पाना होता है। चिउनो की बात करते हुए ओशो हर पुस्तक को एक दीवार कहते हैं, जिसे खटखटाते हुए लोग हैरान से होते हैं कि उन्हें भीतर जाने का रास्ता क्यों नहीं मिलता।
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द्वार तो अपने अंतर में होता है, जो खुला होता है। लेकिन हम द्वार की ओर नहीं जाते, हम बाहर दीवार पर दस्तक देते हैं...कह सकती हूं--ओशो एक ऐसे वक्ता हैं, जो कह सकते हैं--अरे यह मैं जो कुछ तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे मन-मस्तक को खाली करने के लिए कह रहा हूं। वह जो दूसरों के अनुभव से भरा हुआ है, उसे खाली कर दो।
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देखो, यह मत करना कि मैंने जो कहा, तुम उसे भी जमा कर लो, और तुम्हारे मस्तक और भारी हो जाए।ʼ कह सकती हूं--यह ओशो हैं, जो बन्धन और मुक्ति का मर्म जान पाए हैं, कह पाए हैं-- 'यह जितनी भी पुस्तकें हैं, जितने भी पीर पैगम्बर हैं, सब अंगुलियां है--जो मूल शक्ति की ओर किया जाने वाला संकेत है। संकेत पाकर तो आगे जाना होता है, और अँगुलियों को पीछे छोड़ जाना होता है।
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लेकिन आप लोग तो अंगुलीयां पकड़कर बैठ गए, और अंगुलीियों को पूजने लगे 'कहना चाहूंगी--मेरी यही यात्रा थी, जब मैंने लिखा, 'परछाईयों को पकड़ने वालों! छाती में जलती हुई आग परछाई नहीं होती। भीतर में जलती हुई आग तो एक जिज्ञासा है। परछाईयां तो छूट चुकीं, अंगुलियां भी छूट गईं अब 'न पानी कहीं, न चांद कहीं,' सी हालत है। अन्तर अनुभव का चांद मैं कब और कितना भर देख पाऊंगी, यह वक्त जानता है, मैं जानती।'
अमृता प्रीतम

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