शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

आशिकां रह कब्ज करदा ३/६६

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/६६*
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*आशिकां रह कब्ज करदा, दिल वज़ा रफतंद ।*
*अल्लह आले नूर दीदम, दिल ही दादू बन्द ॥६६॥*
दृष्टांत - 
सुन्दर का दीदार कर, प्रश्‍न करा नवाब ।
साहिब देहु दिखाय मुझ, मुख दिखलाया आव ॥४॥
उक्त साखी के अर्थ में है, आसुरी संपदा के गुण रूप मैल को हृदय से निकालो और मन को एकाग्र करो, यही प्रेमियों का प्रभु प्राप्ति का मार्ग है इसी अर्थ पर उक्त दृष्टांत है । 
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छोटे सुन्दरदासजी इच्छानुसार पढ़ कर काशी से भ्रमण करते हुये राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश के फतेहपुर नगर के बाहर किसी शून्य स्थान में रहने लगे । ग्रीष्म ऋतु थी एक दिन भिक्षा लेकर आ रहे थे । मार्ग के दोनों ओर खेती की रक्षा के लिये मिट्टी की दिवालें थीं । सामने से वहां का नवाब शिकार करके अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ लौट रहा था ।
सुन्दरदासजी उनसे बचने के लिये खेत में जाने के लिये दीवाल में पगते थे, उन पर चढ़कर खड़े हो गये । सब से आगे के सैनिक ने सुन्दर दासजी के हाथ में तूंबी देखकर कहा - बाबा ! प्यास बहुत लगी है, पानी पिला दो । सुन्दरदासजी - पानी नहीं है, छाछ है, पीना चाहो तो पीलो । उसने कहा - छाछ ही पिला दो । उसे पिलादी । फिर पीछे के प्रत्येक सैनिक ने माँग - माँग कर पान की ।
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अल्प वस्तु भी संत की, हो अपार प्रख्यात ।
सुन्दर एक हि तुम्बी से, छाछ सेन को पात ॥१४७॥ दृ.त.११ ।
शिवर में जाकर सबने कहा - आज तो प्यास से व्याकुल हो रहे थे, साधु ने छाछ पिलाई तब शांति मिली । सब ने कहा - तीन पाव की तुम्बी थी सबको कैसे पिलाई । यह तो कोई करामत की ही बात है । नवाब ने सुना तो वह भी सायंकाल से कुछ पहले मंत्री, सामन्त आदि के साथ सुन्दरदासजी के पास गया । वहां जाकर उसने कोई गाय या भैंस तो नहीं देखी किन्तु चूहे तथा कोलें(चूहा जैसा ही एक जीव) देखी । 
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फिर सुन्दरदासजी को प्रणाम करके नवाब ने कहा - 
सुन्दर के दो ऊंदर दूझे, तीजा दूझे कोल । 
चौथा सुन्दर आप हि दूझे, धीणा का धमरोल ॥ 
अर्थात मेरे ज्ञान, वैराग्य रूप दो चूहे, तीसरी भक्ति रूप कोल और चौथा मैं साक्षी रूप से दूध देता हूँ अर्थात् मेरा ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, साक्षी स्वरूप में निष्ठा, ये सब ही ठीक स्थिति में हैं । ये चारों वास्तविक स्थिति में जिसके होते हैं, उसके यहां कोई भी कमी नहीं रहती है । 
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फिर नवाब ने कहा - कोई चमत्कार दिखाइये । सुन्दरदासजी - आसन का पल्ला उठाकर देख लो । नवाब ने एक पल्ले को उठाया तो उसके नीचे वहां का तालाब दिखाई दिया । दूसरे के नीचे फतेहपुर । चौथे के नीचे जिसमें वह शिकार करने जाता था वह वन दिखाई दिया । 
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उक्त सबको देखकर नवाब डर गया । फिर उसने कहा - भगवन् ! मुझे भी ईश्वर की प्राप्ति का साधन बताइये । सुन्दरदासजी ने कहा - एक कांसी का कटोरा, जल और भस्म मंगवालो । उसी समय तीनों वस्तुयें मंगवालीं । सुन्दरदासजी ने अपने और नवाब के बीच में जल का कटोरा रखवाकर उसमें राख मिलाकर नवाब को कहा - इसमें देखो क्या दीखता है । नवाब ने देखकर कहा - कु़छ भी नहीं दीखता । सुन्दरदासजी - इसको फैंककर शुद्ध जल भराकर उसमें देखो । 
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जब नवाब शुद्ध जल में देखने लगा तो सुन्दरदासजी ने कटोरे के थप्पड़ मार दी, उसे जल हिलने लगा । नवाब ने देखकर कहा - मुख दीखता है किन्तु साफ नहीं दिखता । सुन्दरदासजी - जल का हिलना बन्द हो जाने दो फिर देखना । फिर देखकर नवाब ने कहा - अब मेरा मुख साफ दिखता है । सुन्दरदासजी - बस इसे हटा दो । 
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थोड़ी देर के बाद नवाब ने पुनः कहा - भगवान् ! ईश्वर प्राप्ति का साधन बताइये । सुन्दरदासजी ने कहा - बता तो दिया । नवाब - मैं नहीं समझा । सुन्दरदासजी ने कहा - जैसे भस्म मिले हुये जल में कु़छ नहीं दीखता बैसे ही हृदय में आसुर गुण और पाप रूप मैल रहता है तब तक ईश्वर नहीं दीखता । जैसे चंचल जल में मुख साफ नहीं दीखता था, वैसे ही चंचल अन्तःकरण में ईश्वर का सम्यक् साक्षात्कार होता है । 
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निष्काम कर्म से अन्तःकरण शुद्ध करो । ईश्वर भक्ति से अन्तःकरण स्थिर करो । फिर ईश्वर भीतर ही दीख जायेगा । जो प्राप्त ही है उसकी प्राप्ति हो जाएगी । नवाब समझ गया और उसे दिन से वह सुन्दरदासजी का भक्त भी बन गया । फिर तो उनका सत्संग करता ही रहता था । छोटे सुन्दरदासजी का विशेष विवरण दादूपंथ परिचय के पर्व ९ अध्याय ४ से ६ तक देखें ।
(क्रमशः)

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