बुधवार, 20 नवंबर 2013

राम जपें रुचि साधु को ४/१८२

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/१८२* 
दादू हरि साधू यों पाइये, अविगत के आराध ।
साधू संगति हरि मिलैं, हरि संगति तैं साध ॥१८२॥
दृष्टांत - 
परीक्षित शुक आराध के, मुक्त भया तत्काल ।
भक्तरामजी टूक दे, उदयपुर भये निहाल ॥१४॥
साधू संगति हरि मिलै - राजा परीक्षित को हरि उपासना से शुकदेवजी की संगति मिली और उससे सात दिन में ही मुक्त होकर हरि से मिल गये । यह कथा अति प्रसिद्ध है । 
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दूसरी कथा भक्तरामजी की दोहा के उत्तरार्ध में है । भक्तरामजी श्यामकुमारी बाईजी के थांमा के संत थे और उदयपुर(शेखावाटी) के टीटैड़ा स्थान में दिक्षित थे । उदयपुर जमात से उदयपुर में प्रवेश करते हैं । तब ग्राम के पास ही एक टीला पर स्थान है । उस टीले को ही टीटैड़ा बोलते हैं । 
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भक्तरामजी उदयपुर के श्मशान में ठहरे हुये थे । ग्राम के कु़छ लोग उनको बारंबार कहते थे । तुम यहां क्यों रहते हो ? यहां तो आते है और जलते हैं । जब बहुत कहने लगे तब भक्तरामजी के मुख से भी निकर गया कि - आते जाओ और जलते जाओ । पीछे तो नित्य श्मशान जलने लगा । 
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फिर लोग घबरा कर भक्तरामजी की शरण गये और प्रार्थना की तब ग्राम के जिन घरों की भिक्षा संत जीमते हैं, उन सब घरों से रोटी का चौथा भाग भिक्षा का बंधवाकर कहा - जाओ अब पूर्ववत नहीं होगा । अतः भक्तरामजी के स्थान टीटैड़ा में भिक्षा के टुकड़े ही आते थे । सारी रोटी नहीं आती थी । भक्तरामजी आये संतों को वे टुकड़े ही जिमाते थे । 
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एक वैरागी संत तीर्तयात्रा को जाने लगा तो ठाकुर सेवा भक्तरामजी के रखने का विचार करके भक्तरामजी से प्रार्थना की । भक्तरामजी ने कहा - हमारे तो टुकड़े आते हैं । ठाकुरजी जीम लेंगे क्या ? वैरागी - जीम लेंगे । भक्तरामजी ने ठाकुरजी से पू़छा - आप टुकड़ों से संतों की सेवा करने से तथा भक्तरामजी की सच्ची भक्ति से भगवन् मूर्ति से बोल कर भक्तरामजी को निहाल(कृतार्थ) कर दिया था । अर्थात मूर्ति द्वारा ही उनके प्रश्‍न का उत्तर देकर उन्हें निहाल कर दिया था ।
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भूरादासजी ने भक्तरामजी को दादूजी का पौत्र शिष्य लिखा तो मिथ्या है । उदयपुर के भक्तरामजी छोटे बाईजी की परम्परा में आगे हुये हैं । दूसरी भूल गंगायचा के भक्तरामजी की कथा उक्त उदयपुर के भक्तरामजी के साथ लगादी है । भक्तराम की वीनती आदि तीन दोहे गंगायचा के भक्तरामजी के हैं । गंगायचा वाले भी दादूजी के पौत्र शिष्य नहीं थे आगे चलकर हुये हैं । 
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यहां यह संकेत इसलिये किया है कि दादूपंथ के इतिहास में भ्रांति नहीं फैले । गंगायचा के भक्तरामजी का विशेष विवरण दादूपंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय १५ में देखें । गंगायचा के भक्तरामजी गंगारामजी के शिष्य थे, और दादूजी से चौथी पीढ़ी में हुये हैं । उदयपुर के भक्तरामजी दयारामजी के शिष्य थे ये भी दादूजी से कई पीढ़ी दूर हुये हैं । पाठकों को ध्यान रहे ।
(क्रमशः)

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