मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

दादू मन ही मांहीं ऊपजे ४/६

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/६*
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*दादू मन ही मांहीं ऊपजे, मन ही मांहिं समाय ।*
*मन ही मांहीं राखिये, बाहर कह न जनाय ॥६॥*
दृष्टांत- 
मुहम्मदजी अरु आइसां, रहे बणक गृह हेठ ।
अशुचि रुइ दिई कात के, नियम निबाया ठेठ ॥४॥
एक समय मुहम्मद और आइसां किसी कारण सें एक वैश्य के घर के नीचे के खंड में कु़छ समय रहे थे । वैश्य के ऊपर के खंड में एक कमरे में रुई भरी थी । सेठानी के गोद के पुत्र को शौच अधिक लगने से सेठानी रुई से उसकी गुदा पौंछ-२ कर मुहम्मद आइसां रहते थे उस कमरे के द्वार पर फैंकती रहती थी । उस गंदी रुई को देखकर मुहम्मद ने आइसां को कहा - इसे धोकर साफ करके सुखाया करो और सूख जाने पर कात कर कुकड़ियां बनाकर रखती जाओे । 
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आइसां वैसा ही करने लगी । फिर वे वहां से जाने लगे तब कुकड़ियाँ सेठ को देकर कहा- ये आपकी रुई की कुकड़िया ऊपर ले जाओ । सेठ ने ऊपर ले जाककर सेठानी को कहा - तूने उनको सूत कातने को रुई क्यों दी थी ? सेठानी ने उनसे कहा - मैंने आपको रुई कब दी थी ? मुहम्मद ने कहा - आप बच्चे की गुदा साफ करके फैंकती थी, उसी रुई को धौ, साफ कर, सुखा के कातते रहे थे । अतः वह रुई आपने उक्त प्रकार दी थी । 
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यह सुनकर सेठ, सेठानी अति लज्जित हुये । उक्त प्रकार ही साधक को अपने साधन में आने वाली प्रतिकूलतायें मन में ही रखना चाहिये । यही उक्त कथा का तात्पर्य है ।

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