रविवार, 8 दिसंबर 2013

= ९२ =


#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
दया निरवैरता
घट घट के उनहार सब, प्राण परस ह्वै जाइ ।
दादू एक अनेक ह्वै, बरतें नाना भाइ ॥२०॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! सब घट ही ‘उनहार’ कहिये समान हैं और प्राण भी सबमें एक ही रूप हैं । अर्थात् एक ही चिदात्मा अन्तःकरण रूप उपाधियों से अनन्त मूर्तियों में नजर आने लगता है । वास्तविक विचार कर देखिये तो दूसरा कौन है ॥२०॥
(श्री दादू वाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)
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जटायु की दशा देखकर भगवान राम ने पूछा : महात्मन, आप स्वभाव से माँसाहारी हैं, हो सकता था रावण सीता का वध करके फेक देता। उस स्थिति में आपके भोजन की व्यवस्था हो जाती। फिर आप सीता की रक्षा में अपने आप को इस स्थिति में पहुंचा दिया। क्यों ?
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पक्षीराज जटायु ने तब एक घटना बताई। सूर-असुर संग्राम में महाराज दसरथ के कारण देवताओं की विजय हुई। कुबेर ने महाराज को पुष्पक विमान का अधिकार प्रदान किया। महाराज के स्मरण मात्र से पुष्पक सेवा में उपस्थित हो जाता। एक बार राजा दसरथ विमान से अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे।
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अपने राज्य का विस्तार देखकर उनके मन में विचार आया कि उनका इतना विस्तृत राज्य है और उनके बाद उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं। जो राजा अपने राज्य को एक उत्तराधिकारी न दे सके उसका जीवन अकारथ है। उसी उन्होंने ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय ले लिया और पुष्पक से कूद पड़े।
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पक्षीराज जटायु ये सब कुछ देख रहे थे। उन्होंने तक्षण उडान भरी और जाकर महाराज के जीवन की रक्षा की। तब महाराज ने विलाप करते हुए जटायु से कहा कि आपने उस प्राण की रक्षा क्यों की जिसका कोई अर्थ नहीं, तब इस तरह के विलाप का कारण जटायु ने पूछा। महाराजा दसरथ ने तब सारी बातें विस्तार से बतायी। जटायु ने तब कहा महाराज आप एक संतान को रो रहें हैं जबकि आपको चार-चार पुत्रों का सुख प्राप्त होने वाला है।
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लेकिन इसके लिए आपको कुछ उपाय करने होंगे। लेकिन उपाय जानने से पहले आपको एक वचन देना। महाराज ने कहा कि इस उपाय के बदले में तो मैं कुछ भी दे सकता हूँ आपको जो वचन लेना हो ले लीजिये लेकिन उपाय शीघ्र बता दें। तब जटायु ने कहा कि महाराज प्रथम पुत्र को मुझे देना होगा। यह वचन लेकर जटायु ने उन्हें यज्ञ करके पुत्र प्राप्त करने का उपाय बता दिया।
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कालांतर में राजा दसरथ को चार पुत्र हुए। जन्म-संस्कार के दिन पक्षिराज जटायु पहुंचे और जाकर राजप्रासाद के प्राचीर पर बैठ गए। पुरे अयोध्या में हाहाकार मच गया। लोगों ने इसे अशुभ मानकर जटायु को भगाने चले। तब महाराज ने उन्हें ऐसा करने से रोका और जटायु को प्रासाद के अन्दर ले जाकर उनका आवभगत किया। पक्षिराज ने दसरथ से कहा महाराज आपको अपना वचन तो याद होगा ही अतः अब उसे पूरा भी करें। महाराजा दसरथ ने कहा पक्षिराज मैं इस बात को कैसे भूल सकता हूँ। तब महाराज ने रनिवास में दूत को भेज कर राम को लाने का आदेश दिया।
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रनिवास में हाहाकार मच गयी पता नहीं ये गीध भला बच्चे का क्या करेगा। फिर भी आदेश का पालन शिशु राम को लाया गया और जटायु को सौप दिया गया। उसके बाद पक्षिराज जटायु ने शिशु को जी भर कर प्यार किया और महाराज को सौपते हुए कहा : महाराज मैं ठहरा नभचर मेरा कोई स्थाई स्थान तो है नहीं, मैं इसे कहाँ लेकर भटकता फिरूंगा। इसे मैं अमानत के रूप में आपके पास छोड़ जाता हूँ। आज से मैं ही इस बच्चे का पिता हूँ लेकिन इसका पालन-पोषण आप करेंगे।
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तो हे राम ! इस नाते सीता मेरी पुत्रवधु है। अब एक ससुर के सामने कोई अत्याचारी उसकी पुत्रवधु का अपहरण कर ले जाये ऐसा हो सकता है क्या।
रिश्तों की रक्षा में प्राण भी त्यागने पड़े तो भी इसकी रक्षा होनी चाहिए। ये शिक्षा देकर जटायु इस दुनिया से चले गए और भक्तों में अपना नाम अमर कर गए।

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