सोमवार, 9 दिसंबर 2013

= शूरातन का अंग २४ =(६१/६२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*शूरातन का अंग २४*
*कायर*
*मन मनसा जीते नहीं, पंच न जीते प्राण ।*
*दादू रिपु जीते नहीं, कहैं हम शूर सुजान ॥६१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! बहिरंग मन और विषयाकार मन की वासना, इनको तो जीतता नहीं है, और प्राणधारी पांच ज्ञानेन्द्रियों को अपने - अपने विषयों से रहित नहीं कर सकता, और न काम - क्रोध आदि शत्रुओं को ही जीतता है । और फिर कहते हैं कि हम शूरवीरों में अति श्रेष्ठ शूरवीर हैं ॥६१॥
मन इंद्रन के अर्थ कों, नाचत कायर कूर । 
जगन्नाथ जीते विषय, बुद्धिवन्त सोही सूर ॥
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*मन मनसा मारे नहीं, काया मारण जांहि ।*
*दादू बांबी मारिये, सर्प मरै क्यों मांहि ॥६२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओ ! मन और मन की मनसा को तो मारता नहीं है, अर्थात् निर्वासनिक नहीं बनाता है । और काया को शीत - उष्ण, भूख - प्यास, पंचधारा, पंचाग्नि आदि से, कृश करता रहता है । परन्तु जैसे बम्बी के डंडे मारने से भीतर सर्प नहीं मरता है, इसी प्रकार शरीर को कसौटी देने से मन और मनसा नहीं मरती है ॥६२॥ 
(क्रमशः)

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