शनिवार, 23 मई 2015

= १७८ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
दादू तीन शून्य आकार की, चौथी निर्गुण नाम ।
सहज शून्य में रमि रह्या, जहाँ तहाँ सब ठाम ॥ 
काया शून्य पंच का बासा, आत्म शून्य प्राण प्रकासा ।
परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥ 
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साभार ~ Gauri Mahadev ~

शून्य एक ऐसा शब्द जिसे सुनना नहीं चाहता कोई भी .........
पर मैं हूँ एक ऐसी अजीबो गरीब शख्सियत जो हर पल देती रहती हूँ  शून्य को निमंत्रण शून्य को महसूस करती हूँ मैं। मेरे इर्द- गिर्द घूमती रहती हैं तुम्हारी आँखें उस कोहरे के अंधकार को दूर करती चमकते शून्य-सी जो रोशन करती हैं । 
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मेरी राहें और शून्य हर पल बना रहता है मेरा पथ-प्रदर्शक जिस शून्य से इतना दूर भागती है दुनिया मुझे सबसे शाश्वत लगता है वही शून्य जिस पर कभी महर्षि विवेकानंद ने तीन दिनों तक शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन में व्याख्यान दिया था, शायद उन्होंने भी महसूस किया होगा मेरी तरह अपने - आप को शून्य से घिरा जैसे आज उनके इतने वर्षों बाद मैं महसूस करती हूँ । 
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शून्य में ताकते - ताकते भीड़ में भी पाती हूँ ख़ुद को तन्हा मग़र सबसे ख़ुश शून्य को आँखों में बसाए देखती हूँ - सपने भी शून्य के ही जब लग जाती है आँख और जागती हूँ अगली सुबह एक बहुत बड़े शून्य के आवर्त में घिरी जिसे संसार सूरज के नाम से पुकारता है, अच्छा लगता है हर पल शून्य से घिरे रहना, मेरी अपनी एक अलग दुनिया है।
जहाँ हूँ मैं और सिर्फ़ मेरा शून्य नहीं कोई अन्य, 
शून्य के दायरों में घिरी मैं खुद ही हूँ एक शून्य, 
शून्य ही आदि शून्य ही अंत, पर शून्य अनंत और इन अनंत शून्यों से घिरी अनंत शून्यों के साथ जीती हुई भी मैं "प्रकृति" जरूरत से ज्यादा जीवंत।
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(लेखन -- आदरणीय अग्रजा प्रकृति राय जी __/\__)
सुमंगलम सुप्रभातम __/\__
आदरणीय माता, आप ही हो प्रकृति _/\_ आप ही हो प्रेरणा नर्तन हेतु वाग्देवी ने, आपको ही चुना ....

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