सोमवार, 21 दिसंबर 2015

= १०६ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।
अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहबा संग ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~ ध्यान क्या है?

इस छोटी सी घटना को समझें।

चांग चिंग के संबंध में कहा जाता है, वह बड़ा कवि था, बड़ा सौंदर्य—पारखी था। कहते हैं, चीन में उस जैसा सौंदर्य का दार्शनिक नहीं हुआ। उसने जैसे सौंदर्य—शास्त्र पर, एस्पेटिक्स पर बहुमूल्य ग्रंथ लिखे हैं, किसी और ने नहीं लिखे। वह जैसे उन पुराने दिनों का क्रोशे था। बीस साल तक वह ग्रंथों में डूबा रहा। सौंदर्य क्या है, इसकी तलाश करता रहा।

एक रात, आधी रात, किताबों में डूबा—डूबा उठा, पर्दा सरकाया, द्वार के बाहर झांका—पूरा चांद आकाश में था। चिनार के ऊंचे दरख्त जैसे ध्यानस्थ खड़े थे। मंद समीर बहती थी। और समीर पर चढ़कर फूलों की गंध उसके नासापुटों तक आयी। कोई एक पक्षी, जलपक्षी जोर से चीखा, और उस जलपक्षी की चीख में कुछ घटित हुआ—कुछ घट गया। चांग चिंग अपने आपसे ही जैसे बोला—हाउ मिस्टेकन आइ वाज! हाउ मिस्टेकन आइ वाज! रेज द स्क्रीनन एंड सी द वर्ल्ड। कैसी मैं भूल में भरा था! कितनी भूल में था मैं! पर्दा उठाओ और जगत को देखो! बीस साल किताबों में से उसे सौंदर्य का पता न चला। पर्दा हटाया और सौंदर्य सामने खड़ा था, साक्षात।

तुम पूछते हो, ‘ध्यान क्या है?’

ध्यान है पर्दा हटाने की कला। और यह पर्दा बाहर नहीं है, यह पर्दा तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारे अंतस्तल पर पड़ा है। ध्यान है पर्दा हटाना। पर्दा बुना है विचारों से। विचार के ताने —बानों से पर्दा बुना है। अच्छे विचार, बुरे विचार, इनके ताने—बाने से पर्दा बुना है। जैसे—जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ, वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है, ऐसी कोई संधि भीतर जब तुम तो हो, जगत तो है और दोनों के बीच में विचार का पर्दा नहीं है। कभी सूरज को ऊगते देखकर, कभी पूरे चांद को देखकर, कभी इन शांत वृक्षों को देखकर, कभी गुलमोहर के फूलों पर ध्यान करते हुए—तुम हो, गुलमोहर है, सजा दुल्हन की तरह, और बीच में कोई विचार नहीं है। इतना भी विचार नहीं कि यह गुलमोहर का वृक्ष है, इतना भी विचार नहीं; कि फूल सुंदर हैं, इतना भी विचार नहीं—शब्द उठ ही नहीं रहे हैं—अवाक, मौन, स्तब्ध तुम रह गए हो, उस घड़ी का नाम ध्यान है।

पहले तो क्षण— क्षण को होगा, कभी—कभी होगा, और जब तुम चाहोगे तब न होगा, जब होगा तब होगा। क्योंकि यह चाह की बात नहीं, चाह में तो विचार आ गया। यह तो कभी—कभी होगा।

इसलिए ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना—यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है। यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहत से नहीं होती है। यह तो कभी—कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है। तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?

ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौडूधाप से थोड़ी देर के लिए रुक जाए, घडीभर को चौबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर लीं, पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर—मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो।

इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहा प्रकृति नाचती चारों तरफ। चौबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी—तुम्हारे बावजूद—किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संएकर्श हो जाए, एक क्षण को द्वार खुल जाएं, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।

और पहले अनुभव के बाद फिर अनुभव आसान हो जाते हैं। आसान इसलिए हो जाते हैं कि तब तुम्हें एक बात समझ में आ जाती है कि सीधे—सीधे ध्यान को पाने का कोई उपाय नहीं है, परोक्ष मार्ग है। तुम शिथिल रहो, आहिस्ता से चलो, आपाधापी छोड़ो, एक घंटे के लिए कम से कम चौबीस घंटे में लीन हो जाओ प्रकृति में, संगीत सुनो, कि पक्षियों के गीत सुनो; कुछ न हो करने को, आंख बंद कर लो, अपनी सांस सुनो।

बुद्ध ने तो इस पर बहुत जोर दिया। अपनी सांस को ही देखते रहो—आयी, गयी, आयी, गयी—इसकी माला बना लो, इससे बेहतर कोई माला नहीं है। हाथ में माला लेकर फेरोगे, वह तो बहुत जड माला है। यहां जीवित श्वास चल रही है, श्वास की माला फेरी जा रही है—श्वास भीतर आयी, बाहर गयी, श्वास भीतर आयी, बाहर गयी—यह जो भीतर चक्र चल रहा है, मंडल श्वास का, इसको ही देखते रहो; शांत, मौन से इस पर ही टकटकी बांधे रहो और तुम हैरान हो जाओगे, किसी बहुमूल्य मुहूर्त में कभी ताल बैठ जाता है, अचानक सब एक हो जाता है, तुम मिट गए, संसार मिट गया।

पहले —पहले तो क्षणभर को ऐसी झलकें आएंगी, खो जाएंगी। जब खो जाएं तो फिर उनकी तीव्रता से आकांक्षा मत करना, अन्यथा वे कभी न आएंगी। जब खो जाएं, तो कहना ठीक, अब जब फिर दुबारा आएंगी, फिर भोगेंगे। मगर उनके आने के लिए द्वार—दरवाजे खुले रखना।

ऐसा ही समझो कि सूरज बाहर निकला है, तुम अपने कमरे में दरवाजा बंद किए बैठे हो, रोशनी भीतर नहीं आती। अब सूरज को कोई गट्ठर में बांधकर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है! सूरज की किरणों को कोई गाय—बैल जैसा हाककर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है! क्या करोगे? दरवाजा खोल दो, सूरज की किरणें अपने से भीतर आ जाती हैं। कभी—कभी रात होगी और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज नहीं है। कभी—कभी दिन होगा और आएंगी, क्योंकि सूरज है। कभी—कभी दिन भी होगा और बादल घिरे होंगे और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज बादलों में ढंका है। मगर कभी—कभी मौके मिलेंगे जब दिन है, बादल भी नहीं हैं, सूरज प्रगट है, तो किरणें भीतर आएंगी। तुम ज्यादा से ज्यादा बाधा न दो, बस इतना ही काफी है।

मेरी बात को खयाल में ले लेना। ध्यान को सीधा—सीधा नहीं किया जाता, बाधा न दो। इसीलिए तो मैं कहता हूं नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआ—रोआ पुलकित कर गया, ताजा कर गया। धीरे— धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को—ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे— धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है, उन घडियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी।

इसे इस तरह प्रयोग करो—कभी रात नींद खुल गयी है, बिस्तर पर पड़े हों, अनिद्रा के लिए परेशान मत होओ, इस मौके को मत खोओ, यह शुभ घड़ी है। सारा जगत सोया है, पत्नी—बच्चे, सब सोए हैं, तो मौका मिल गया है। बैठ जाओ अपने बिस्तर में ही, रात के सन्नाटे को सुनो; ये बोलते हुए झींगुर, यह रात की चुप्पी, यह सारा जगत सोया हुआ, सारा कोलाहल बंद, जरा सुन लो इसे शांति से। यह शांति तुम्हारे भीतर भी शांति को झनकारेगी। यह बाहर गूंजती हुई शांति तुम्हारे भीतर हृदय में भी गज पैदा करेगी, प्रतिध्वनि पैदा करेगी। जब सारा घर और सारी दुनिया सोयी हो तो आधी रात चुपचाप अपने बिस्तर में बैठ जाने से ज्यादा शुभ घड़ी ध्यान के लिए खोजनी कठिन है।

लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम आधी रात अलार्म भरकर बैठ जाओ। कभी! नहीं तो धोखा हो जाएगा। तुमने अगर इसको कोई नियम बना लिया कि अलार्म भरकर और दो बजे रात उठकर बैठ जाएंगे, फिर सब गड़बड़ हो जाएगी। ध्यान तुम्हारे खींचे —खींचे नहीं आता। ध्यान इतनी नाजुक बात है। तुम बुलाते हो तो संकोच से भर जाता है, आता ही नहीं। बड़ी नाजुक दुल्हन है ध्यान। तुम जोर—जबर्दस्ती मत करना, नहीं तो बलात्कार हो जाएगा। बहुत धीरे— धीरे फुसलाना पड़ता है। फुसलाने शब्द को याद रखना। ध्यान को फुसलाना पड़ता है। फिर चौबीस घंटे में कभी भी हो सकता है; लेकिन खयाल यही रखना कि फुसलाना है, आयोजन नहीं करना है। नहीं तो लोग हैं कि रोज पांच बजे रात उठ आए और बैठ गए ध्यान करने। जड़ की तरह, यंत्रवत, मशीन की तरह। नहीं, ऐसा ध्यान नहीं होता।

हां, तुम खयाल रखो, थोड़ा अपने हृदय का भी भाव रखो कि जब तुम्हारा हृदय बहता हो, तब चूकना मत। तब हजार काम हों तो छोड्कर स्वात में बैठ जाना। अपने स्नानगृह में भी बैठ गए जाकर तो चलेगा। लेकिन जब तुम्हें लगे कि हा, अभी भीतर घड़ी आती मालूम पड़ती है, विचार कुछ कम हैं, तनाव कुछ कम है, मन कुछ प्रफुल्लित है, आनंदित है—यह घड़ी है!

लोग अक्सर उलटा करते हैं। जब उनका मन दुखी होता है तब ध्यान करते हैं। लोग दुख में भगवान को याद करते हैं! यह तो जब उलटी हवा बह रही है, तब बहुत कठिन हो जाएगा। सुख में याद करना।

इसलिए मेरे सूत्र अनूठे हैं। मैं तुमसे कहता हूं जब तुम्हारा मन बड़ा सुखी मालूम पड़े। कोई मित्र घर आया है, बहुत् दिनों बाद मिले हैं, गले लगे हैं, गपशप हुई है, मन ताजा है, हलका है, खूब प्रसन्न हो तुम, इस मौके को छोड़ना मत। बैठ जाना एकांत में। इस घड़ी में सुख का सुर बज रहा है, परमात्मा बहुत करीब है। सुख का अर्थ ही होता है, जब तुम्हारे जाने—अनजाने परमात्मा करीब होता है; चाहे जानो, चाहे न जानो! सुख जब तुम्हारे भीतर बजता है, तो उसका अर्थ हुआ कि परमात्मा तुमसे बहुत करीब आ गया। तुम किसी अनजाने मार्ग से घूमते—घूमते परमात्मा के पास पहुंच गए हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना मत। इस घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही, हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा।

लेकिन लोग दुख में याद करते हैं, सुख में भूल जाते हैं! दुख में तुम मंदिर से बहुत दूर पड़ गए हो, अनंत दूरी है। दुख में तो भरोसा ही नहीं आता कि ईश्वर हो भी सकता है। दुख में कहा भरोसा आ सकता है! दुख में तो ऐसा लगता है, इस संसार में कोई नहीं है। दुख में तो ऐसा लगता है कि यह कोई शैतान चला रहा है इस संसार को। कोई दुष्ट! दुख में तो ऐसा लगता है कि समाप्त कर लो अपने को—न कोई कृतज्ञता, न कोई धन्यवाद का भाव उठता; दुख में कैसे उठे! लेकिन लोग दुख में मंदिर जाते, मस्जिद जाते, भगवान को याद करते, प्रार्थना करते और सुख में भूल जाते।

और मैं तुमसे कहता हूं सुख में ही घटता है। सुख के क्षण में ही तुम करीब से करीब होते हो। उस समय सरक जाना। उस समय लेट जाना जमीन पर साष्टाग, रख देना सिर शुइम पर, ठंडी गीली लान पर लेट जाना, आंख बंद कर लेना, उस क्षण सोच लेना अपने को कि मिल रहे पृथ्वी के साथ, एक हो रहे पृथ्वी के साथ। और तुम पाओगे, कभी—कभी आ जाती है लहर, तरंग की तरह तुम्हारे भीतर प्राणों में कुछ कैप जाता है, कोई नयी बीन बजती। धीरे— धीरे पहचान हो जाएगी। और धीरे— धीरे तुम्हें कला आ जाएगी। तुम धीरे—धीरे पहचानने लगोगे कि कब इसके होने के क्षण होते हैं। कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह निकटता में घट जाती है बात, और कैसी दशा होती है तुम्हारी जब यह मुश्किल होती है बात। फिर तुम पहचान पकड़ जाओगे, तुम्हारी आत्मभिज्ञा, तुम्हारी प्रत्यभिज्ञा, तुम्हारी पहचान धीरे— धीरे साफ होने लगेगी। पहले तो अंधेरे में टटोलने जैसा है।

मगर ध्यान घटता है। और कभी—कभी तो उन लोगों को भी घटता है जिन्होंने ध्यान के संबंध में कुछ सोचा ही नहीं। अधार्मिकों को भी घटता है। क्योंकि ध्यान की कोई शर्त ही नहीं है। छोटे बच्चों को घट जाता है। छोटे बच्चों को ज्यादा घट जाता है, बजाय बड़ों के। एक तितली के पीछे भाग रहा है बच्चा, सुबह का सूरज निकला है, भागा जा रहा है तितली के पीछे, सब भूल जाता है, तितली ही सब हो गयी, उसे याद ही नहीं रहती, खुद भी तितली जैसा उड़ा जा रहा है, उस घड़ी ध्यान की झलक मिल जाती है।

लोग जीवनभर याद करते हैं कि बचपन में बड़ा सुख था। किस सुख की याद है यह? क्या तुम सोचते हो बचपन में तुम्हारे पास बहुत धन था? नहीं था, जरा भी नहीं था, दो—दो पैसे के लिए रोना पड़ता था! एक—एक पैसे के लिए बाप और मां के मोहताज होना पड़ता था! धन तो नहीं था। कोई बड़ा पद था? कहा से होता पद! सब तरह की झंझटें थीं, स्कूल कारागृह था, जहां रोज—रोज बांधकर भेज दिए जाते थे; जहां बैठे—बैठे सिवाय परेशान होते थे और कुछ समझ में न पड़ता था। और हर कोई दबा देता था, बल भी नहीं था। हर एक छाती पर सवार था।

तो बचपन में सुख कैसा था? न धन था, न पद था, न प्रतिष्ठा थी; न कोई सम्मान देता था, सुख हो कैसे सकता था? सुख कुछ और था। तितलियों के पीछे भागने में ध्यान की किरण उतर आयी थी। सागर के किनारे शंख—सीप बीनने में परम आनंद का क्षण उतरा था। कंकड़—पत्थर बीन लाए थे और समझे थे कि हीरे ले आए, और किस चाल से मस्त होकर आए थे! कुछ भी न था हाथ में, लेकिन कुछ ध्यान की सुविधा थी।

मेरे देखे बचपन में ध्यान के अतिरिक्त और कोई सुख नहीं है। तुम भूल गए हो, तुम्हें इतना ही भर याद रही है कि बड़ा सुख था। अगर तुमसे कोई पूछे कि बताओ क्या—क्या सुख था, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। और ध्यान की तो तुम्हें याद ही नहीं है, ध्यान शब्द ही अपरिचित हो गया है। बच्चे को ऐसा पता भी नहीं था कि यह ध्यान है। पर पता होने से क्या होता है! तुम्हें पता हो कि सोना है या नहीं है, इससे क्या होता है? सोना सोना है।

जैसे—जैसे तुम बड़े होते गए वैसे—वैसे ध्यान छूटता गया, क्योंकि तुम विचारों में ज्यादा पड़ते गए। विचार का शिक्षण दिया गया। स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, सब विचार सिखाते हैं। अभी तक मनुष्य—जाति का ऐसा अभागापन है कि कोई विश्वविद्यालय ध्यान नहीं सिखाता! विचार। धीरे— धीरे तुम विचार से भरते गए, भरते गए। चिंताएं, चिंताएं, तुम चूक ही गए वे छोटे —छोटे क्षण जब पर्दा हट जाता था—अपने से हट जाता था।

तुमने देखा, बच्चे कैसे प्रमुदित मालूम होते हैं! छोटे—छोटे बच्चे, जिनके पास कुछ भी नहीं है! कोई कारण नहीं है प्रसन्न होने का, अकारण प्रसन्न हैं। वह अकारण प्रसन्नता ध्यान है। देखा, एक छोटा बच्चा अपने झूले में पड़ा है, कुछ नहीं है चूसने को, अंगूठा चूस रहा है, और कैसा प्रसन्न मालूम होता है! ऐसा प्रसन्न मालूम होता है कि सिकंदर भी न रहा होगा प्रसन्न, अकबर और अशोक भी न रहे होंगे ऐसे प्रसन्न, बड़े से बड़े साम्राज्य के मालिक ऐसे प्रसन्न न रहे होंगे! इसके पास कुछ भी नहीं है, या तो अपने हाथ का या पैर का अंगूठा डाले चूस रहा है। लेकिन कुछ घट रहा है। अभी पर्दा खुला ही है, अभी विचार उठते ही नहीं, अभी भीतर की बीन बज रही है।

यहूदियों में एक कथा है कि जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो देवता आते हैं और उस बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हैं, ताकि वह भूल जाए उस सुख को जो सुख परमात्मा के घर उसने जाना था, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी—दयावश ऐसा करते हैं वे, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी। अगर वह सुख याद रहे, तो बड़ी कठिन हो जाएगी, तुलना में। तुम फिर कुछ भी करो, व्यर्थ मालूम पड़ेगा। धन कमाओ, पद कमाओ, सुंदर से सुंदर पत्नी और पति ले आओ, अच्छे से अच्छे

बच्चे हों, बडा मकान हो, कार हो, कुछ भी सार न मालूम पड़ेगा, अगर वह सुख याद रहे।

तो यहूदी कथा कहती है कि एक देवता उतरता है करुणावश और हर बच्चे के माथे पर सिर्फ हाथ फेर देता है। उस हाथ के फेरते ही पर्दा बंद हो जाता है, उसे भूल जाता है परमात्मा। सुख भूल गया, फिर यह जीवन के दुखों में ही सोचने लगता है, सुख होगा।

उस पर्दे को फिर से खोलना है, जो देवताओं ने बंद कर दिया है। मुझे तो नहीं लगता कि कोई देवता बंद करते हैं। देवता ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन समाज बंद कर देता है। शायद कहानी उसी की सूचना दे रही है। मां—बाप, परिवार, समाज, स्कूल बंद कर देते हैं, पर्दे को डाल देते हैं। ऐसा डाल देते हैं कि तुम भूल ही जाते हो कि यहं। द्वार है, तुम समझने लगते हो दीवार है। ध्यान का अर्थ है, इस पर्दे को हटाना।

और इसे अनायास होने दो, इसे कभी—कभी तुम्हें पकड़ लेने दो—और जब तुम्हें यह तरंग पकड़े तो लाख काम छोड्कर बैठ जाना। क्योंकि इससे बहुमूल्य कोई और काम ही नहीं है। रात हो कि दिन, सुबह हो कि साझ, फिर मत देखना। कुछ चूकोगे नहीं तुम, कुछ खोएगा नहीं। और अपूर्व होगी तुम्हारी संपदा फिर। और यह संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है, बस पर्दा हटाने की बात है।

‘ध्यान क्या है?’

ध्यान भीतर पड़े पर्दे को हटाना है।

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