शनिवार, 19 दिसंबर 2015

= १०० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ ।
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥ 
मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।
समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥ 
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साभार ~ सुधि शुक्ला ~ 
!! श्री गुरुभ्यो नमः !! 
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“भगवान् !” - {३} -
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नारायण ! बाहर की इन्द्रियों की शान्ति के साथ कहा कि अन्दर वाली इन्द्रियाँ भी शान्त होनी चाहिये । बहुत से लोग केवल बाहर से वृत्तियों का शमन करके बैठ जाते हैं । यह भारतवर्ष के तथाकथित धार्मिकों की समस्या है जो गीताकाल से आज तक चल रही है । भगवान् श्री मधुसूदन कृष्ण ने अर्जुन से कहा - "तेरे मन में तो जीत की इच्छा स्फुर रही है, नहीं तो यहाँ आता क्यों; लेकिन आने के बाद भाग रहा है । इसलिये तेरे अन्दर की इच्छा नहीं गई है । जब दूसरे निन्दा करेंगे, तब लड़ेगा । यदि अभी नहीं लड़ेगा तो तू पाखण्डी बन जायेगा ।" जो बाहर से इन्द्रियों को वश में कर लेता है, आँखें बन्द कर ले, हाथ - पैर सिकोड़ कर बैठ जाये, लेकिन मन के विषयों का स्मरण करता रहता है, भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं कि वह "पाखण्डी" है । यह भगवान् श्रीकृष्ण के समय का नहीं, उससे भी पुराना रोग है । लंकाधिपति रावण ने बड़ी तपस्या की और तप काल में इन्द्रिय - निरोध करके बैठा था । इसलिये कि "ताकत आयेगी तो दूसरों की औरतों को भगाऊँगा, दूसरे का राज्य जीतूँगा ।" अधिकतर धार्मिक भी जब कर्म का समय आता है तब वैराग्य की बात करते हैं और जब भोग भोगने का समय आता है तब तैयार हैं । इसलिये वे मिथ्याचारी होते हैं । इसी प्रकार श्री शङ्कराचार्य भगवान् कहते हैँ कि बाहर से इन्द्रियों को प्रशमित किया लेकिन अन्दर से विषयों की भूख - प्यास दहकती रही तो काम नहीं चलेगा । जिसने मन से पदार्थों की भूख - प्यास, अर्थात् पदार्थ की विषय - कामना को हटा दिया वही "योगी" है ।
नारायण ! यह कैसे करें ? दो तरह के साधक होते हैं - हठयोगी और राजयोगी । हठ योगी हठपूर्वक साधन करता है जिसे कहीं - कहीं बताया है कि हाथ से हाथ मसलकर, दाँत से दाँत पीस कर मन को जीतना हठयोगी का अभ्यास है । राजयोगी हठ योग नहीं करता । वेद का सिद्धान्त हठ का नहीं, राजयोग का है । इसलिये वेद में "काम्यकर्म" को भी बताया । आपके मन में जो कामना है उसको पूर्ण करने के सारे साधन वेद में बताये कि धन, पुत्र, पत्नी आदि चाहिये तो क्या - क्या करें, जैसे "सप्तशती" में बताया "पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।" वेद कहता है कि जब तक मन में कामना है, तब तक काम्य कर्म करो, कोई बात नहीं । लेकिन काम्य कर्मों से आपका मन शुद्ध होगा । यह वेद का विचित्र सिद्धान्त है "काम्येपि शुद्धिरस्ति एव ।" भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर स्वामी के अन्तेवासी शिष्य - भगवान् आचार्य सुरेश्वर लिखते हैं कि काम्य कर्मों से भी शुद्धि होती है । जब तक इच्छा है, उसे पूर्ण करने के लिये प्रयत्न करो, लेकिन शास्त्र - विरुद्ध कर्म मत करो । जब धीरे - धीरे कामना - पूर्ति का अनुभव करोगे तब पता चलेगा कि जितना सुख उसमें समझते थे, उतना नहीं है । केवल काम्य कर्म के भरोसे रहे तो जो शुद्धि मिलेगी वह भोगोपयोगी ही होगी लेकिन भोग की अतृप्तिप्रदता के प्रति जागरूक हो गये तो विवेक जग जायेगा, उससे अन्तकरण शुद्ध होगा । तब पदार्थों से स्वतः वैराग्य होगा । "परिक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात्" सारे लोकों को चाहते हो तो उन्हें प्राप्त करो परन्तु साथ - साथ परीक्षा कर के देखो । उन्हें ठोक - बजाकर देखो । उनसे घबराने की जरूरत नहीं है । कर्मों के द्वारा प्राप्तव्य लोकों को प्राप्त कर के अनुभव करके देखो परन्तु विवेक के साथ । जैसे - जैसे अनुभव करोगे, वैसे - वैसे निर्वेद की प्राप्ति होगी, परीक्षा करोगे तभी पता चलेगा । हम गलती यह करते हैं कि परीक्षा नहीं करते । आज बीस रुपये महीना मिलता है, कल दो सौ रुपये महीना मिलने लगे तो परीक्षक विचार करता है कि धन दस गुना बढ़ा तो सुख दसगुना बढ़ा या नहीं ? प्रत्येक व्यक्ति से मिला जाये तो पता चलता है कि आमदनी पहले से ज्यादा बढ़ी है । गत बाईस वर्ष में आमदनी सब की बढ़ी है । पहले जो मजदूर एक रुपये रोज नहीं कमाता था, आज पाँच सौ रुपये रोज, चार सौ रुपये रोज मिलते हैं । उनसे पूछें कि "सुखी ज्यादा हुआ ?" तो कहता है कि "महान् दुःखी हूँ ।" जो व्यपारी बोरे में सौदा करता था अर्थात् अनाज जिस भाव आया, उसी भाव बेचा, केवल खाली बोरा बचा; वह आज अनाज में सौ दो सौ रुपये का फर्क कमाता है । उससे कहें कि "सुखी हो ?" कहता है "नहीं परेशान हूँ ।" आमदनी तो बढ़ी लेकिन सुख नहीं बढ़ा । उल्टा कहता है कि दुःख ही बढ़ा । फिर भी कहता है "धन को बढ़ायेंगे तो सुख होगा ।" इतने से दुःख मिला, आगे और बढ़ाने से दुःख ही बढ़ाना है। लेकिन कोई परीक्षा करने को तैयार नहीं है । उससे कह दिया गया कि "पदार्थ बढ़ाने से सुख होगा" तो उसी में लगा है । एक बार हम कानपुर से दिल्ली मोटर से जा रहे थे। रास्ते में मील के पत्थर लगे होते हैं । रास्ता ड्राईवर चूक गया । उससे पहले मील के पत्थर पर दिल्ली - 351 लिखा था । अगला पत्थर 352 का मिला । हमने कहा कि रास्ता गड़बड़ लगता है । साथ में भी कुछ लोग थे, वे लोग कहने लगे, "नहीं ठीक चल रहे हैं।" घण्टा - दो घण्टा आगे चले तो रास्ता बन्द हो गया । वह गाँव का रास्ता था । पता लगाया तो लोगों ने कहा कि उलटे आ गये । इसी प्रकार तुमने धन की प्राप्ति के मार्ग पर पत्थर दुःख के लगे देखे, दिल्ली तो दूर होती जा रही है । फिर भी लोग कहते हैं कि आगे चलें तो सुख मिलेगा । परीक्षा नहीं करेंगे तो सुख कैसे होगा ? इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर स्वामी कहते हैं कि केवल हठयोग इष्ट नहीं । वह साधन तो है, लेकिन वैदिक कहता है कि इसमें सुख नहीं । वह कहता है कि हठ से इन्द्रिय - नियन्त्रण करना सुख का रास्ता नहीं । उसकी अपेक्षा तो काम्यकर्मों से शास्त्रानुमत तरीके से भोग प्राप्त करो तो सुख हो जायेग । किन्तु वास्तविक सुख का मार्ग विवेकपूर्वक वैराग्य ही है ।

नारायण ! इसलिये भगवान् भाष्यकार जी का सिद्धान्त है "सानन्दं ध्यानयोगात्" आनन्द के साथ ध्यान - योग करो । जैसे कौए की बीट को उठाने की किसी की इच्छा नहीं होती, यह उपदेश नहीं देना पड़ता कि "बीट फालतू की चीज़ है, मत उठाओ ।" हमें वह मिल जाती तो अच्छा था - ऐसा मनन नहीं करना पड़ता । इसी प्रकार जिसे संसार के पदार्थों में लगता है कि ये सब व्यर्थ है,फालतू प्रयोजन वाले हैं, उसको उनके लिये कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता । बल्कि बिना माँगे बीट पड़ जाये तो कपड़ा धोते हो, कई बार तो स्नान की भी इच्छा होती है । इसी प्रकार जिसने राजयोग का अभ्यास कर लिया हो उसे किसी प्रारब्धवेग से संसार के पदार्थ प्राप्त हो गये तो सोचता है कि कब हटें । कब धोकर बाहर निकलें । अन्तःकरण को तो धो लें । सोचता है कि स्नान कर लें अर्थात् समाधि के अभ्यास से विषयों को हटायें । इसलिये जब वह परमात्मा में लगता है तब उसे आनन्द मिलता है और प्रारब्ध - वेग से यदि विषय का संयोग हो भी गया तो धोने की इच्छा करना है । तभी चित्त के अन्दर उस अत्यन्त सूक्ष्म संवित् का साक्षात्कार होता है । 

नारायण ! ऐश्वर्यादि इन छह चीजों का विरोध है । पर सभी पूर्णतः जिसके अन्दर रहें , उसे भगवान् कहेंगे ! यह एकान्त का रमण लोगों की दृष्टि में अपयश है । इसलिये भगवान् चन्द्रमौली - शङ्कर जी का पूजन करने में लोग डरते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि ज्ञान की है ।
"श्मषानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिताभस्मालेपः स्रगतपि नृकरोटी परिकरः ।"
संसार में जितनी अमङ्गल की चीज़ें समझी जाती हैं, वे सब उन्होंने अपने पास बटोर कर रख लिया है । इसलिये उनका यश नहीं होता । भगवान् श्रीविष्णु का यश होता है जिन्होने स्वर्ण के कुण्डल, हीरे के हार धारण किये हुए हैं । एक बार मुम्बई के प्रवास पर हम गये थे तो किसी ने कहा कि "यहाँ बहुत बड़े महात्मा आये हुए हैं ?" हम पूछ बैठे कि उनमें क्या देखा तो कहने वाले कहने लगे कि "उनके साथ करिब पचासों मोटरें हैं ।" यह यश की दृष्टि है । पचासों मोटरे साथ हैं, इसका महात्मा से क्या सम्बन्ध ? कहने वाले ने यह विचार नहीं किया । अतः इन छह चीजों का जहाँ समन्वय हो, उसे भगवान् कहते हैं । जो इन छह चीजों को सर्वथा अपने में समन्वित करेंगे, वे ही वस्तुतः परमात्म तत्त्व को समझने में समर्थ होंगे। 

आचार्य - गुरुजनों को भी भी शिष्यगण "भगवन्" शब्द से ही संबोधन करते हैं ! आचार्य में भी छह चीजों का समन्वय होता है । जिनमे छह ऐश्वर्यों का समन्वय हो वे ही उस परम तत्त्व को समझा और बोध करा सकते हैं । 

इति शम् ।
नारायण स्मृति ।

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