卐 सत्यराम सा 卐
दादू मन ही मांहि समझ कर, मन ही मांहि समाइ ।
मन ही मांहि राखिये, बाहर कहि न जनाइ ॥
दादू समझ समाइ रहु, बाहरि कहि न जनाइ ।
दादू अद्भुत देखिया, तहँ ना को आवै जाइ ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~
जिनके पास सब था, वे ऐसे चुप होते थे, जैसे नहीं है।
हम आकृष्ट कर रहे हैं। पुराने जमाने में सारी दुनिया में जिनके पास धन होता, समाज का आग्रह होता था, धन का प्रदर्शन न करें। धन होना काफी है। कृपा करके उसका प्रदर्शन न करें, उसे दिखाते न फिरें, उसे उछालते न फिरें। क्योंकि उसका उछालना, उसका दिखाना न मालूम कितने लोगों के उद्विग्न होने का कारण हो जाए। इसलिए धनी आदमी का एक ही सबूत था, वह जो आदमी धन को उछालता नहीं फिरता था, वह सबूत था कि वह आदमी धनी है। गरीब ही धन को उछालते थे। जिनके पास कुछ नहीं था, वे कुछ दिखाना चाहते थे कि उनके पास कुछ है। जिनके पास सब था, वे ऐसे चुप होते थे, जैसे नहीं है।
एक सूफी कहानी मैंने सुनी है। सम्राटों की एक परंपरा में एक बेटा भिखारी है। कई पीढ़ियों से भीख मांगी जा रही है। लेकिन परंपरा सम्राटों की है। घर में कथा है कि कभी बाप-दादे किसी पीढ़ी में बड़े सम्राट थे, बड़े खजाने थे उनके पास। पर यह कुछ पता नहीं चलता कि वे खजाने कहां खो गए। कभी वे हारे, इसका पता नहीं चलता। कभी लूटे गए, इसका पता नहीं चलता। फिर यह भिखमंगापन कैसे आया? हुआ क्या? कुछ पता नहीं चलता। पीढ़ियों तक पता नहीं चला। फिर एक पीढ़ी में एक दिन अचानक एक फकीर घर पर आया और उसने उस घर के जवान लड़के को कहा कि अब तुम वह आदमी हो, जिसको खजानों की खबर दी जा सकती है। वी आर दि गार्जियंस!
उस युवक ने कहा, तुम कौन से गार्जियंस हो, हमें कुछ पता नहीं।
हमारे पास तुम्हारे बाप-दादे छोड़ गए हैं। हमारे पास, मतलब हमारे गुरु के पास, उनके गुरु के पास, फकीरों के पास छोड़ गए हैं कि जब हमारे घर में ऐसा आदमी पैदा हो, जो धन को प्रदर्शन करने में उत्सुक न हो, तब यह खजाना वापस सौंप देना। तो तुम वह आदमी हो। मैं तुम्हें खजाना सौंपने आया हूं।
उस युवक ने कहा, लेकिन मुझे कुछ सोचने का मौका दें।
उस फकीर ने कहा कि बिलकुल ठीक, तुम्हीं वह आदमी हो, जिसकी तलाश थी।
धन के खजाने की कोई खबर देता, तो आप बैठे रहते? आप खड़े हो गए होते–कहां है? भीख मांग रहा था परिवार। उस युवक ने कहा, सोचने का मौका दें। जिम्मेवारी भारी है। और गरीबी में जीना उतना जटिल नहीं, धन पास हो और बिना प्रदर्शन किए रह जाना बहुत मुश्किल है। थोड़ा सोचने का मौका दें। ऐसी जल्दी भी क्या है? इतने दिन से आप सम्हाल ही रहे हैं, और थोड़े दिन सम्हालें। उस फकीर ने कहा, उठो! क्योंकि हम भी कब तक सम्हालते रहें? और तुम्हीं वह आदमी हो, क्योंकि लक्षण पूरे हो गए। क्योंकि हमारे पास जो दस्तावेज है उसमें कहा गया है कि जब भी कोई परिवार का हमारा आदमी कहे, सोचने का मौका दो, उसे तुम दे आना। हम हर पीढ़ी में आते रहे। लेकिन जिससे भी हमने पूछा, वह उठ कर खड़ा हो गया।
वह धन उसे सौंप दिया गया। सारे गांव में, आस-पास, दूर-दूर तक खबर पहुंच गई कि धन वापस मिल गया है। लेकिन भीख मांगनी तो जारी रही। सम्राट ने बुलाया उस युवक को और कहा कि पागल तो नहीं हो? या तो अफवाह है यह! हमने सुना है कि तुम्हें पुश्तैनी धन वापस मिल गया है। खजाना सौंप दिया गया है। फिर यह भीख क्यों मांग रहे हो? उस युवक ने कहा कि पहले तो भीख मांगना एक मजबूरी थी, अब एक कर्तव्य है। नाउ इट इज़ ए डयूटी। क्योंकि इसी शर्त पर वह धन मुझे सौंपा गया है कि उसका प्रदर्शन न हो। और आज मैं घर बैठ जाऊं और भीख मांगने न जाऊं, तो इससे बड़ा प्रदर्शन और क्या होगा? उसने कहा कि यानी मामला ही खतम हो गया, और प्रदर्शन और ज्यादा क्या हो सकता है? लोग अगर मुझे घर में बैठा देख लें कि आज भीख मांगने नहीं गया–क्योंकि रोज जो मिलता है, उसी से तो काम चलता है–तो प्रदर्शन तो हो जाएगा।
धन जब प्रदर्शन बनता है, तो स्पृहा पैदा होती है। लेकिन धन तो हम कमाते ही इसलिए हैं कि प्रदर्शन कर सकें। अगर प्रदर्शन ही न करना हो, तो कमाने की जरूरत क्या है? जो वस्त्र पहनने ही न हों, उनको बनवाने की क्या जरूरत है? और जिन मकानों में रहना ही न हो, उनको खड़ा क्या करना है? जिसका कभी प्रदर्शन ही न करना हो, उसको रखने का भी क्या उपयोग है? हम कहेंगे ऐसा।
लेकिन लाओत्से कहता है कि अगर हम लोगों के ध्यान आकर्षित न करें, तो लोग परम शांति में जी सकते हैं। और ये जो एक्झिबीशनिस्ट, प्रदर्शनकारी हैं, रुग्ण हैं। क्योंकि जो तुम्हारे पास है, उसे भोगना तो स्वस्थ है, उसे दिखाना रुग्ण है। इसे थोड़ा समझ लें। जो मेरे पास है, उसे अनुग्रहपूर्वक भोगना तो स्वस्थ है; लेकिन उसे दिखाए फिरना रुग्ण है, बीमार है। असल में, दिखाता वही फिरता है, जो भोग नहीं पाता। जो भोग लेता है, उसे दिखाने की जरूरत नहीं रह जाती। जिस चीज को आप भोग सकते हैं, उसे आप दिखाते नहीं फिरते। जिसको आप भोग नहीं सकते, उसे आप दिखाते फिरते हैं। सभी तलों पर एक्झिबीशन जो है…।
कोई भी प्रयोजन नहीं है। लेकिन कहीं कोई बात है, कहीं कुछ मामला है। और वह मामला यह है कि जिस चीज को हम भोगने में असमर्थ होते चले जाते हैं, उसको हम प्रदर्शन करने लगते हैं। जिस चीज को हम भोग लेते हैं, उसको हम प्रदर्शन नहीं करते। जो आदमी बहुत मजे से, आनंद से खाना खा लेता है और पचा लेता है, वह चर्चा नहीं करता फिरता कि उसके घर में आज क्या बना। वह पार्टियां नहीं देता कि लोग देखें।
नसरुद्दीन एक दफा सम्राट के घर निमंत्रित हुआ है। सम्राट का नियम है कि वह हर वर्ष अपने जन्मदिन पर देश के सभी खास-खास लोगों को बुलाता है। नसरुद्दीन भी बुलाया गया, पहली दफा। कोई पांच सौ मेहमान हैं। थालियां सजती जाती हैं, लेकिन खाना कुछ शुरू नहीं होता। थालियां लगती चली जाती हैं एक से एक सुंदर। और ऐसी प्रचलित बात है कि वह सम्राट हर बार नई से नई चीजें बनवाता है। सुगंध से भर गया है हॉल। भोजन आते जा रहे हैं, लगते जा रहे हैं। नसरुद्दीन बड़ा बेचैन है। उसकी भूख काबू के बाहर होती चली जा रही है। आखिर वह चिल्लाया कि भाइयो, यह हो क्या रहा है? भोजन देखने के लिए है या करने के लिए?
उसके पड़ोस के लोगों ने कहा कि ठहरो, तुम अशिष्टता कर रहे हो। इससे पता चलता है कि तुम किसी भूखे घर से आते हो। सब लग जाने दो, शांति से देखो, दूसरी बातें करो। इसकी तरफ तो देखो ही मत। खाने के वक्त भी पूरा मत खा लेना, छोड़ देना। नहीं तो लोग समझेंगे, तुम गरीब आदमी हो, तुम्हारे पास खाने को नहीं है।
नसरुद्दीन ने कहा, यह बताना बेहतर है कि मेरे पास भोजन है या यह बताना कि मेरे पास भूख है!
भोजन तो वह आदमी बताता है, जिसके पास भूख नहीं रह जाती। जब भूख नहीं रह जाती, तब भोजन दिखाना पड़ता है। जब तक भूख है, तब तक भोजन दिखाया नहीं जाता, किया जाता है। तो जो हम प्रदर्शन करते हैं, वह सब उन्हीं-उन्हीं चीजों का प्रदर्शन है, जिन्हें हम बिलकुल नहीं भोग पाते। रुग्ण चित्त का लक्षण है।
लाओत्से कहता है, ध्यान आकृष्ट न किया जाए लोगों का उस तरफ, जो न्यून है, जो व्यर्थ है, जिसका कोई आंतरिक मूल्य नहीं, तो लोग उद्विग्न न हों, अनुद्विग्न रहें।
और लोग अनुद्विग्न रह जाएं, तो उनके जीवन में दूसरी ही यात्रा शुरू हो जाती है। उद्विग्नता ले जाती है संसार में, अनुद्विग्नता ले जाती है परमात्मा में। उद्विग्नता बनती है यात्रा संसार की, संताप की; अनुद्विग्नता बनती है यात्रा मुक्ति की, मोक्ष की, सत्य की।....ओशो
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