शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

पद. ४३४

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३४. विनती । त्रिताल ~
गोविन्द के चरणों ही ल्यौ लाऊँ ।
जैसे चातक बन में बोलै, पीव पीव कर ध्याऊँ ॥ टेक ॥ 
सुरजन मेरी सुनहु वीनती, मैं बलि तेरे जाऊँ ।
विपति हमारी तोहि सुनाऊँ, दे दर्शन क्यों हि पाऊँ ॥ १ ॥ 
जात दुख, सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊँ ।
दादू को दया कर दीजे, नाँव तुम्हारो गाऊँ ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, परमेश्‍वर के दर्शनार्थ विनती कर रहे हैं कि हे गोविन्द ! अब हमने तो केवल आपके चरणारविन्द में ही अपनी वृत्ति लगाई है । जैसे चातक पपैया वन में स्वांति बूँद के लिए पीव - पीव पुकारता रहता है, इसी प्रकार हम प्रियतम - प्रियतम कर - करके आपके दर्शनार्थ ध्यान लगा रहे हैं । हे सुन्दर संत भक्तों के स्वामी ! अब हमारी भी आप प्रार्थना सुनिये । हम आपके ऊपर बार - बार बलिहारी जाते हैं । हे प्रिय ! हम आपके विरह रूपी दर्द से अति दुखी है । आपको ही हम अपना दुख सुनाते हैं । अब आप कृपा करके दर्शन दीजिये । आपकी दया बिना हम आपका दर्शन कैसे पा सकते हैं ? अब आप ही कृपा करके बताइये कि आपके दर्शन कब होंगे ? जो आपकी शरण में आते हैं, उनके सम्पूर्ण दु:ख नष्ट होकर आपके दर्शन रूपी सुख को प्राप्त कर लेते हैं । हम भी आपकी शरण में आये हैं । अब हम पर दया करके आपके नाम का दान दीजिये, जिससे हम निष्काम नाम - स्मरण द्वारा आपका दर्शन प्राप्त कर सकें

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