मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

= १०९ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू देखा देखी लोक सब, केते आवैं जांहि ।
राम सनेही ना मिलैं, जे निज देखैं मांहि ॥ 
दादू सब देखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।
सूक्ष्म सहज न सूझई, निराकार निरधार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
विहरने का अर्थ होता है, झील को छोड़ना नहीं और फिर भी छोड़ देना, भीतर से छोड़ देना। बाहर से जहां हो हर्ज नहीं, लेकिन भीतर से मुक्त हो जाना। संसार में रहते हुए भी संसार तुम्हारे भीतर न हो, तो विहार। इस शब्द को तुमने बहुत सुना होगा, लेकिन इस पर कभी ध्यान न दिया होगा। बुद्ध की कथाओं में तो बार—बार आएगा—बुद्ध यहां विहरते थे, बुद्ध वहा विहरते थे। बुद्ध की तो सारी कथाएं ही इसी से शुरू होंगी कि भगवान कहा विहरते थे।
इस शब्द को खूब ध्यान करना। कभी—कभी तुम्हें भी इसका अनुभव हो सकता है। किसी शांत दशा में तुम अपने घर में बैठे हो और अचानक तुम पा सकते हो किं घर तुम्हारे भीतर नहीं है। तो तुम्हें विहार का स्वाद मिलेगा। तुम अपनी पत्नी के पास बैठे हो और चौंककर तुमने देखा कि कौन पत्नी, कौन पति! कौन मेरा, कौन तेरा! क्षणभर को एक अजनबी राह पर मिलन हो गया है, फिर बिछुड जाएंगे। न पहले इसका कुछ पता था, न बाद में इसका कुछ पता रह जाएगा। यह थोडी सी देर के लिए संग—साथ हो लिया है—नदी—नाव—सयोग—यह जल्दी ही टूट जाएगा। इसमें कोई अनिवार्यता नहीं है, इसमें कोई आवश्यकता नहीं है, सांयोगिक है; संयोगमात्र है। ऐसा अगर तुम्हें स्मरण आ जाए पत्नी के पास बैठे—बैठे, तो तुम पाओगे कि पास भी बैठे हो—शायद हाथ हाथ में भी ले लिया है—लेकिन इतनी दूरी हो गयी, तुम कहीं और, वह कहीं और, दोनों के बीच अनंत आकाश जितना फासला हो गया, तो विहार का अनुभव होगा, तो विहार का स्वाद लगेगा।
ये शब्द ऐसे नहीं हैं कि इनका अर्थ तुम शब्दकोश में खोज लो। ये शब्द ऐसे हैं कि जीवन के कोश में इनका अर्थ खोजना पडता है। ये शब्द बड़े जीवंत हैं। ये शब्द ही नहीं हैं, ये चित्त की दशाएं हैं। भोजन करने बैठे हो, भोजन कर रहे हो और कभी होश सध जाए, क्षणभर को भी, तो तुम्हें दिखायी पड़ेगा— भोजन तो शरीर में जा रहा है, तुममें तो जा ही नहीं सकता! तुममें तो जाएगा कैसे! तुम तो चैतन्य हो, चैतन्य में भोजन कैसे जाएगा! भोजन तो देह में जा रहा है। और भोजन देह की ही जरूरत है, तुम्हारी जरूरत भी नहीं। देह में जाएगा, देह बनाएगा, तुम तो दूर खड़े देख रहे। अगर भोजन करते समय ऐसी प्रतीति तुम्हें हो जाए, तो विहार। तो विहर गये। तो उसी क्षण में तुम बुद्धत्व के पास पहुंच गये। संसार में रहे और संसार में न रहे, कमलवत हो गये। ऐसा यह अदभुत और अनूठा शब्द है। इसका अर्थ है, जल से गुजरो, लेकिन जल तुम्हें छुए नहीं।
एक झेन गुरु अपने शिष्यों को कहता था बार—बार, जल से गुजरो और जल तुम्हें छुए नहीं। शिष्य—जैसे शिष्य होते हैं—सोचते थे, यह बात हो नहीं सकती। प्रतीक्षा में थे कि कभी मौका लग जाए और गुरु को नदी में से गुजरते देख लें। ऐसा मौका भी आ गया। तीर्थयात्रा पर गये थे और एक नदी पार करनी पड़ी। तो सारे शिष्य बड़े ध्यान से देख रहे थे कि गुरु के पैर को पानी छूता या नहीं?
पानी तो छुएगा ही। पैर तो पैर हैं, पानी पानी है, कोई पानी किसी के लिए नियम थोड़े ही छोड़ देगा। पानी छुआ तो शिष्यों ने गुरु को घेर लिया, उन्होंने कहा, आप बार—बार कहते हैं जल से निकलना और पानी छुए नहीं। हमने बहुत निकलकर देखा, छूता था, तो हमने सोचा, हमसे नहीं सधता है, आप तो साध लिये होंगे। आप भी निकल रहे हैं और जल छू रहा है! वह गुरु हंसा, उसने कहा, कहा? मुझे जल नहीं छू रहा है। और जिसे छू रहा है, वह मैं नहीं हूं।....osho

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