मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

= ११०

卐 सत्यराम सा 卐
दादू पारब्रह्म पैंडा दिया, सहज सुरति लै सार ।
मन का मारग मांहि घर, संगी सिरजनहार ॥ 
सहज शून्य मन राखिये, इन दोनों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~ सत्य क्या है?
इसका उत्तर नहीं हो सकेगा। इसका उत्तर हो ही नहीं सकता।
सत्य कैसे पाया जा सकता है, इसका तो उत्तर हो सकता है, विधि बतायी जा सकती है, लेकिन सत्य क्या है, उसे बताने का कोई उपाय नहीं। सत्य को तो स्वयं ही जानना होता है, दूसरा न बता सकेगा। और दूसरे का बताया गया सत्य न होगा। ऐसा नहीं कि दूसरे ने नहीं जाना है। सत्य जाना तो जा सकता है, लेकिन जनाया नहीं जा सकता।
प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन उत्तर की अपेक्षा न करो। उत्तर तुम्हें खोजना होगा। उत्तर मुझसे न मिल सकेगा। मेरी तरफ से इशारे हो सकते हैं कि ऐसे चलो, ऐसे जीओ, तो एक दिन सत्य मिलेगा। लेकिन सत्य क्या होगा, कैसा होगा, जब मिलेगा तो कैसा स्वाद आएगा, यह तो स्वाद आएगा तभी पता चलेगा।
हम होशियार लोग हैं, हम गणित लगाकर चलते हैं, हम पहले पूछते हैं सत्य क्या है, ठीक पता चल जाए तो फिर हम खोज करें। इसीलिए तो बहुत कम लोग सत्य की खोज करते हैं।
सत्य की खोज का अर्थ हुआ, अज्ञात में जाना है, अंधेरे में उतरना है, अनजान, अपरिचित से दोस्ती करनी है। सत्य है भी, इसका भी कोई भरोसा नहीं दिला सकता तुम्हें। अगर तुमने जिद्द की हो, अगर तुम तर्क में कुशल और पटु हो, तो कोई यह भी नहीं सिद्ध कर सकता कि सत्य है। तुममें श्रद्धा हो, स्वीकार हो, तो तुम यह बात मानकर चल सकते हो कि सत्य है। कैसे तुम मानोगे? क्योंकि आज तक किसी ने नहीं कहा कि सत्य क्या है।
जीसस को पूछा है सूली लगाने के पहले पाटियस पायलट ने—रोमन गवर्नर ने—जिसकी आज्ञा से जीसस को सूली हुई, सूली की सजा देने के बाद, सजा सुनाने के बाद पायलट ने जीसस की तरफ देखा और कहा कि एक प्रश्न मुझे भी पूछना है, मेरा निजी प्रश्न, सत्य क्या है? और जीसस जो जीवनभर बोलते रहे थे, जब भी किसी ने कुछ पूछा था तो उत्तर दिया था, कहते हैं, चुप खड़े रह गये। पायलट की आंखों में झांका, लेकिन चुप रहे, बोले कुछ भी नहीं। बिना बोले सूली पर चढ़ गये। क्यों नहीं बोले? न बोलने का कारण है। जो प्रश्न पूछा था, उसका शब्दों में उत्तर नहीं हो सकता।
लाओत्सु ने कहा है, जो कहा जा सके वह सत्य न होगा। सत्य तो कहा ही नहीं जा सकता। और जो भी कहा जा सकेगा, कहने के कारण ही असत्य हो जाएगा। जापान में एक बहुत बडा झेन फकीर हुआ—लिंग शू। सम्राट ने उसे बुलवाया था प्रवचन देने को। आया, सम्राट का निमंत्रण था, तो जरूर आया। सम्राट ने खडे होकर प्रार्थना की, सत्य क्या है?
लिंग शू खड़ा हुआ मंच पर, उसने जोर से सामने रखी टेबल पीटी, सन्नाटा छा गया। सब लोग उत्सुक होकर बैठ गये। सबकी रीढें सीधी हो गयीं। सम्राट भी बैठ गया कि शायद अब कोई महत्वपूर्ण बात कहने को है लिंग शू। और लिंग शू ने सन्नाटा न छोड़ा। क्षणभर रहा और बोला, प्रवचन पूरा हो गया। उतरा मंच से, बाहर चला गया।
सम्राट ने अपने वजीरों से कहा, यह किस तरह का प्रवचन हुआ? हम तो वर्षों प्रतीक्षा किये लिंग शू की—अब आता, अब आता, अब पहाड़ों से उतरता है, हम राह देखते —देखते थक गये और यह आदमी आया और टेबल पीटकर बोलता है, प्रवचन पूरा हो गया! यह बोला तो एक भी शब्द नहीं।
उस मौन में कुछ कहा लिंग शू ने। उस मौन में ही कहा जा सकता है। जैसे जीसस ने पाटियस पायलट की आंखों में झाककर देखा और कुछ भी न कहा। लिंग शू ने और भी बड़ी करुणा की, उसने टेबल पीटी, ताकि कोई झपकी खा रहा हो, सोया हो, तो जग जाए। फिर क्षणभर को सन्नाटा रहा।
बुद्ध एक सुबह कमल का फूल हाथ में लिये हुए आए और उस दिन बोले नहीं—रोज बोलते थे। प्रतीक्षा में बैठे हैं शिष्य, भिक्षु, श्रावक। फिर प्रतीक्षा भारी होने लगी, क्योंकि बुद्ध हैं कि उस कमल के फूल को देखे चले जाते हैं और बोलते कुछ भी नहीं। आधी घड़ी बीती, घड़ी बीती, फिर तो लोग घबड़ाने लगे कि यह क्या हो रहा है, ऐसा कभी न हुआ था।
और तब एक शिष्य महाकाश्यप हंसने लगा, खिलखिलाकर हंसने लगा—उसे कभी किसी ने हंसते भी न देखा था, वह तब तक जाहिर भी नहीं था, तब तक किसी को उसका पता भी नहीं था—उसकी हंसी की आवाज उस सन्नाटे में गंजी, बुद्ध ने आंखें उठायीं, महाकाश्यप को अपने पास बुलाया, फूल उसे दे दिया और समूह से कहा, जो मैं कहकर कह सकता था, तुमसे कह दिया; और जो कहकर नहीं कहा जा सकता, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं। वह सत्य का दान था।
फिर सदियां बीत गयी हैं, पच्चीस सौ साल बीत गये, बौद्ध चिंतक, मनीषी इस पर विचार करते रहे हैं, ध्यान करते रहे हैं, कि क्या दिया बुद्ध ने महाकाश्यप को? क्या मिला महाकाश्यप को? क्यों महाकाश्यप हंसा? तब तक नहीं हंसा था, उसके पहले तक उसके बाबत कोई उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में नहों है, फिर उसके बाद भी कोई उल्लेख नहीं है। महाकाश्यप हंसा लोगों की चित्तदशा देखकर कि लोग शब्द में प्रतीक्षा कर रहे हैं और आज बुद्ध मौन में दिये दे रहे हैं।
जिस लिंग शू की मैंने तुमसे कहानी कही, वह मरणशथ्या पर पड़ा था। शिष्य इकट्ठे हो गये थे। हजारों बार उन्होंने कोशिश की थी जान लें कि सत्य क्या है, धर्म क्या है, बुद्धत्व क्या है, निर्वाण क्या है, और लिंग शू हमेशा मुस्कुराकर चुप रह जाता था। सोचा कि शायद मरते समय कुछ कह दे, जाते—जाते .शायद कोई कुंजी दे भै। तो शिष्यों ने पूछा कि हम एक ही प्रश्न पूछने आए हैं, विदा के पहले उत्तर दे जाएं। पूछा लिंग शू ने, क्या है प्रश्न? वही तो अटकी थी मन में बात शिष्यों के, सभी ने कहा, एक ही, हम सबका एक ही प्रश्न है, अलग—अलग भी प्रश्न नहीं—सत्य क्या है? लिंग शूर ने आंखें बंद कर लीं, सन्नाटा रहा।
यही तो सदा का मामला था। मरते वक्त भी अपनी आदत से लिंग शू बाज न आया। यही उसकी जिंदगीभर की व्यवस्था थो। पूछो सत्य कि चुप हो जाता। और कुछ भी पूछो तो खूब बोलता, लेकिन जैसे ही तुम सत्य की बात के करीब आते कि जैसे उसकी जबान को लकवा लग जाता। चुप ही चल दिया लिंग शू आंख बंद रही सो बंद ही रही, फिर न खुली।
उसके निर्वाण के बाद उसके शिष्यों ने उसका एक स्मारक बनाना चाहा। उस पर वे उसका जीवन लिखना चाहते थे। लेकिन क्या लिखें! उसका जीवन मौन की एक लंबी कथा थी। नहीं कि उसने कुछ न कहा था, रोज बोलता था, लेकिन जो लोग पूछते थे, वह नहीं बोलता था, कुछ और बोलता था। लोग पूछते हैं, स्वास्थ्य क्या है? और लिंग शू बोलता था, औषधि क्या है बीमारी को दूर करने की।
लिंग शू की पकड़ बड़ी वैज्ञानिक थी। तुम बीमार हो, औषधि की पूछो, स्वास्थ्य की पूछने से क्या होगा! अभी तुम बीमार हो, तुम स्वास्थ्य का अनुभव भी नहीं कर सकोगे। कोई लाख सिर पटके और समझाए, तुम तक बात नहीं पहुंचेगी, नहीं पहुंचेगी। तो औषधि की बात समझायी जा सकती है, औषधि खोजो, सत्य की बात मत पूछो। औषधि ले लो, बीमारी कट जाए, तो जो बच रहेगा वही स्वास्थ्य है, वही सत्य है।
जिसइr दिन तुम शांत हो जाओगे, उस दिन तुम्हारे भीतर जो मौजूद होगा, वही सत्य है। जिस दिन तुम निर्विचार हो जाओगे, कोई विचार की तरंग न होगी, उस दिन तुम्हारे भीतर जो निर्धूम ज्योति जलेगी, वही सत्य है। जिस क्षैण तुम्हारे जीवन से सारी वासना विदा हो जाएगी, उस दिन निर्वासना में तुम्हारे भीतर जो प्रकाश और आलोक होगा, वही सत्य है। जिस दिन तुम जानोगे कि न मैं देह हूं जिस दिन तुम जानोगे कि न मैं मन हूं उस दिन तुम जो जानोगे, वही तुम हो, वही सत्य है।
लेकिन उसे कैसे कोई कहे! लिंग शू ने बातें तो बहुत कही थीं, लेकिन उन बातों में उसके जीवन का असली स्वर न था। असली स्वर तो मौन था।
शिष्यों ने जब स्मारक बनाया तो वे चाहते थे, कुछ ऐसी बात लिखी जाए स्मारक पर, संक्षिप्त शब्दों में, ताकि लिंग शू के पूरे जीवन के संबंध में इशारा हो जाए। वे कुछ सोच न सके। उन्होंने बहुत सिर मारा, लेकिन वह आदमी असली बातों पर मौन ही रहा था, व्यर्थ की बातों पर उन्हें लगता था बोला, सार्थक बातों पर चुप रहा। हमने कुछ पूछा, इसने कुछ कहा। तो इसके बाबत लिखें क्या? इसने जो कहा था, वह लिखें? वह जंचता नहीं, क्योंकि वह इसके जीवन का असली स्वर न था। जो इसने नहीं कहा, उसको कैसे लिखें? वही इसका असली स्वर था।
तो वे एक दूसरे सदगुरु के पास गये पूछने कि हम क्या लिखें? लिंग शू की कब्र तैयार हो गयी—संगमरमर की प्यारी कब बनायी है—उसकी कब्र पर कुछ लिखना है, जो इंगित दे, सदियों तक इशारा करे। जिस सदगुरु से उन्होंने पूछा, उसका नाम था, द्य मैन। प्ल मैन अधिकतर एक ही शब्द में बोलता था। जैसे लिंग शू चुप रहता था, मौन हो जाता था, प्ल मैन जब कोई कुछ पूछता था तो अक्सर एक ही शब्द में उत्तर देता था। समझो तो ठीक, न समझो तो ठीक। जब शिष्यों ने प्ल मैन से पूछा तो द्य मैन थोड़ी देर चुप रहा और फिर जोर से बोला—सदगुरु! मास्टर! बस इतना लिख दो।
और लिंग शू की कब पर अभी भी लिखा हुआ है—सदगुरु। कुछ और नहीं लिखा है। बड़ी अजीब बात प्ल मैन ने कही कि सदगुरु। क्योंकि सत्य को कभी नहीं बोला, इसलिए सदगुरु। सत्य तक पहुंचने का मार्ग जरूर बताया, लेकिन सत्य क्या है, कभी नहीं बताया, इसलिए सदगुरु। असदगुरु वही है जो तुम्हें सत्य क्या है, यह तो बताए; और सत्य तक कैसे पहुंचा जाए, यह कभी न बताए। और जो तुम्हें यह न बताए कि सत्य तक कैसे पहुंचा जाए, उसकी सत्य के संबंध में की गयी परिभाषाएं दो कौड़ी की हैं। स्‍वप्‍नजाल हैं।
तुम्हारा प्रश्न तो महत्वपूर्ण है कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जरा और दूसरी दिशा से पूछो। तुम यह पूछो कि सत्य को कैसे पाया जाता है? जरा व्यावहारिक बनो। जमीन पर आओ, आकाश में न उड़ो। तुम जहां हो वहां से बात शुरू करो। अंधा आदमी पूछता है, प्रकाश क्या है? अंधे आदमी को पूछना चाहिए, मैं अंधा हूं मेरी आंखें कैसे ठीक हों? बहरा आदमी पूछता है, ध्वनि क्या है? बहरे आदमी को पूछना चाहिए, मेरे कान कैसे ठीक हों?
तुम मत पूछो सत्य की बात, तुम इतना ही पूछो कि हमारी आंख कैसे ठीक हो जाएं? आंख पर जाली जमी है, जन्मों —जन्मों की जाली जमी है वासना की, विचार की, विकृति की, उसके कारण कुछ भी दिखायी नहीं पडता। इसलिए सवाल उठता है कि सत्य क्या है? अंधे को सवाल उठता है कि प्रकाश क्या है? और ऊपर से देखोगे तो सवाल में कुछ भूल भी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन क्या यह उचित सवाल है? और क्या तुम प्रकाश की व्याख्या करोगे अंधे के सामने? और क्या तुम सोचते हो कि अंधा इससे कुछ समझ पाएगा? तुम प्रकाश का गुणगान करोगे, स्तुति गाओगे? तुम प्रकाश के रंगों और प्रकाश के अदभुत अनुभव की चर्चा में उतरोगे? गीत रचोगे, गुनगुनाओगे?
सब व्यर्थ होगा, क्योंकि अंधे को तुम्हारी कोई बात समझ न आएगी। जिसने प्रकाश जाना नहीं, उसे प्रकाश के संबंध में कुछ भी कहा गया हो, समझ में न आएगा। खतरा यह है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए। गलत प्रश्न पूछने में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि कहीं कुछ का कुछ समझ में न आ जाए।
रामकृष्ण कहते थे, एक आदमी था, अंधा आदमी, उसके मित्रों ने उसे भोज दिया। खीर बनी। उस अंधे आदमी को पहली दफे ही खीर खाने को मिली। गरीब आदमी था, खीर उसे खूब रुची। उसने और—और मांगी। फिर वह पूछने लगा, जरा इस खीर के संबंध में मुझे कुछ बताओ। पास में बैठे किसी तथाकथित बुद्धिमान ने कहा, खीर बिलकुल सफेद होती है, रंग इसका सफेद है। उस अंधे ने कहा, मेरे साथ मजाक न करो, जानते हो कि मैं अंधा हूं जन्म—अंधा हूं सफेद, सफेद यानी क्या? मगर पास में बैठा हुआ आदमी भी पूरा पंडित था, उसने सफेद को समझाने की कोशिश की। उसने कहा, कभी बगुले देखे? बगुले जैसे सफेद होते हैं, उसी का नाम सफेद है। उस अंधे ने कहा, एक पहेली को सुलझाने के लिए तुम दूसरी पहेली बता रहे हो। बगुले, बगुले क्या? कभी देखे नहीं।
मगर पंडित भी पंडित ही था। उसने भी जिद्द कर ली थी कि समझाकर ही रहेगा। उसने कहा, बगुले नहीं देखे! चलो यह मेरा हाथ है, इस पर हाथ फेरो, ऐसी बगुले की गर्दन होती है। अपने हाथ को बगुले की गर्दन जैसा टेढ़ा करके उसने हाथ फिरवा दिया। अंधा बड़ा खुश हुआ, बड़ा आनंदित हुआ। उसने कहा, खूब—खूब धन्यवाद तुम्हारा, अब मैं समझ गया कि खीर कैसी होती है, तिरछे हाथ की तरह खीर होती है। मैं समझ गया, अब मेरी बात समझ में आ गयी। कोई मुझे समझाए तो मैं समझ जाता हूं लेकिन समझाते ही नहीं लोग! लोग टाल ही जाते हैं! तब उस पंडित को समझ में आया कि यह समझाना न हुआ, यह तो और हानि की बात हो गयी, यह तो कुछ का कुछ समझ गया!
सत्य को जो जानते हैं, वे कभी न कहेंगे, क्योंकि तुम कुछ का कुछ समझोगे। बुद्ध के पास एक बार लोग एक अंधे को ले आए थे। क्योंकि अंधा बड़ा जिद्दी था और कहता था कि प्रकाश है ही नहीं। और कहता था, ऐसा भी नहीं है कि मैंने अपने मन को अवरुद्ध कर रखा है। मैं बहुत मुक्त—मन व्यक्ति हूं। लेकिन प्रकाश है ही नहीं और लोग व्यर्थ की झूठी बातें और कपोल—कल्पनाओं में पड़े हैं। अगर प्रकाश है तो मैं छूकर देखना चाहता हूं। स्वभावत:, अंधा छूकर चीजों को देखता है, टटोलकर देखता है। तो वह कहता है, प्रकाश अगर है तो ले आओ, मैं छूकर देख लूं; छू लूं तो मैं मान लूं।
अब प्रकाश को कैसे छुओगे! लेकिन अगर प्रकाश को न छुओ तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकाश नहीं है? लेकिन अंधे की बात में भी बल है। उसके पास एकर्श की ही तो इंद्रिय है जिससे वह पहचानता है।
वह कहता है, चलो, एकर्श न करवा सको, जरा प्रकाश को बजाओ, तो मैं सुन लूं मेरे कान ठीक हैं। चलो, यह भी न कर सको तो प्रकाश को मेरे मुंह में रख दो, मैं जरा उसका स्वाद ले लूं मेरी जिह्वा भी ठीक है। यह भी नहीं होता! तो जरा प्रकाश को मेरे नासापुट के पास ले आओ, मुझे गंध बिलकुल ठीक से आती है, मैं उसकी गंध ले लूं। कुछ तो प्रमाण दो! कुछ तो ऐसा प्रमाण दो जो मेरी सीमा और समझ के भीतर पड़ता है।
लेकिन प्रकाश को न सूंघा जा सकता है, प्रकाश में कोई गंध होती ही नहीं। न प्रकाश को छुआ जा सकता, क्योंकि प्रकाश का कोई रूप नहीं होता, कोई देह नहीं होती, कोई काया नहीं होती। न प्रकाश को चखा जा सकता, क्योंकि प्रकाश में कोई स्वाद नहीं होता। न प्रकाश को बजाया जा सकता, प्रकाश में कोई ध्वनि नहीं होती। तो अंधा खिलखिलाकर हंसता और वह कहता, फिर क्यों व्यर्थ की बातें करते हो? प्रकाश है ही नहीं। और मैं ही अंधा नहीं हूं, तुम सब अंधे हो। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं ईमानदार अंधा हूं, तुम बेईमान अंधे हो। तुम उस प्रकाश की बातें कर रहे हो जो नहीं है, और मैं उसको स्वीकार नहीं करता।
यही तो नास्तिक कहता है आस्तिक से कि मैं ईमानदार आदमी हूं तुम बेईमान। तुम उस ईश्वर की बातें कर रहे हो जो है नहीं, मैं कैसे मानूं! यही तो गैर—ध्यानी कहता है ध्यानी से कि तुम किस आनंद की बातें कर रहे हो, राह है ही नहीं! हो तो रख दो मेरे सामने। बिछा दो टेबल पर तो मैं परीक्षण कर लूं। यही तो मार्क्स ने कहा है।
मार्क्स ने कहा है, जब तक ईश्वर प्रयोगशाला में परीक्षित न हो, तब तक स्वीकार नहीं होगा। जब हम टेस्ट—टघूब में रखकर ईश्वर की परीक्षा कर लेंगे, एसिड डालकर और हजार तरह के उपाय करके, तब हम स्वीकार करेंगे।
जो तुम्हारे टेस्ट—क्यूब में समा जाएगा, वह ईश्वर होगा! जो तुम्हारी टेबल पर लेट जाएगा और तुम उसके अंग—अंग खंडित करोगे, विश्लेषण करपौ, और तय करोगे कि कौन है, वह ईश्वर होगा!
नास्तिक यही तो कहता है कि मुझमें और तुममें इतना ही फर्क है—यह फर्क नहीं है कि ईश्वर है—फर्क इतना है कि मैं ईमानदार, मैं वही कहता हूं जो मुझे दिखायी पड़ता है, तुम उसकी बातें करते हो जो दिखायी नहीं पडता। तुम अदृश्य के संबंध में नाहक अटकलें लगाते हो।
यही उस अंधे ने बुद्ध से कहा था। बुद्ध ने कहा कि मैं तेरी बात समझता हूं मुझे तेरी बात में जरा भी विरोध नहीं है। लेकिन उन्होंने जो लोग उस अंधे को लेकर आए थे, उनसे कहा कि तुम्हारी बात गलत है, तुम इसे समझाने की कोशिश मत करो। मैं एक बड़े चिकित्सक को जानता हूं जो आंखें ठीक कर सकता है, तुम इसे चिकित्सक के पास ले जाओ।
छह महीने की औषधि से उस आदमी की आंखों की जाली कट गयी। वह अंधा नहीं था—अंधा कोई भी नहीं है, सिर्फ आंखों पर जाली है—उसकी आंखों की जाली कट गयी। वह नाचता हुआ आया। वह बुद्ध के चरणों में गिर पडा। उसने कहा, अब मैं जानता हूं कि प्रकाश है और मुझे क्षमा कर दें, मैंने जो विवाद किया था वह व्यर्थ था, मुझे क्षमा कर दें। मैं अंधा था। सिर्फ अंधा था मैं और अपने अंधेपन को भी पकड़कर बैठा था। मैंने जो विवाद किया था वह ठीक नहीं था। प्रकाश है। और अब मैं जानता हूं कि मैं भी अगर किसी को चाहूं कि प्रकाश एकर्श कर ले, स्वाद ले ले, ध्वनि सुन ले, गंध ले ले, तो मैं भी यह न कर पाऊंगा, और फिर भी प्रकाश है।
प्रकाश का पता ही तब चलता है जब आंख खुलती है। प्रकाश आंख का अनुभव है, और सत्य तुम्हारी अंतर्दृष्टि का। प्रकाश बाहर की आंख का अनुभव है, सत्य तुम्हारी भीतर की आंख का। अंतश्चक्षु खुलें, तो सत्य का पता चलता है। तुम ऐसे प्रश्न मत पूछो कि सत्य क्या है? ऐसा ही पूछो कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें? उसी की तो बात चल रही है रोज। हजार—हजार उपाय और विधियों से उसी की बात चल रही है कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें?
ध्यान अंतश्चक्षु को खोलने की औषधि है। तुम ध्यान में लगो, तुम सत्य की व्यर्थ की बातों में मत पड़ी, अन्यथा दार्शनिक हो जाओगे। आस्तिक हो जाओगे, नास्तिक हो’ जाओगे, विवादी हो जाओगे, तार्किक हो जाओगे, पंडित हो जाओगे, लेकिन कभी जानी न हो सकोगे। ध्यान के अतिरिक्त कोई कभी ज्ञानी नहीं हुआ है।...ओशो

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