शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

= ११७ =

卐 सत्यराम सा 卐
बुरा बला सिर जीव के, होवै इस ही मांहि ।
दादू कर्त्ता कर रह्या, सो सिर दीजै नांहि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

एक सूफी दरवेश टाइगरिस नदी में गिर पड़ा। किनारे से एक आदमी ने उसे देखा कि वह तैर नहीं सकता है। उसने उससे पूछा कि क्या वह किसी आदमी को बुलाए जो उसे बचाकर किनारे ला दे? उस दरवेश ने कहा, नहीं। फिर उस आदमी ने पूछा, तब क्या वह डूब जाना चाहता है? उस दरवेश ने कहा, नहीं। इस पर उस आदमी ने पूछा, आखिर वह चाहता क्या है? दरवेश ने जवाब दिया, जो परमात्मा चाहता है। उसे स्वयं चाहने से मतलब ही क्या है!

यह आदमी परम आलसी रहा होगा, जिसको अष्टावक्र कहते हैं, आलस्य— शिरोमणि। परम आलसी रहा होगा। यह कहता है, मुझे चाहने से मतलब ही क्या है! उसे बचाना होगा तो बचा लेगा, उसे ले जाना होगा तो ले जाएगा। उसकी मर्जी आए, उसकी मर्जी चले। न अपनी मर्जी आए, न अपनी मर्जी चले, बात ही क्या है करने की! वह तैर भी नहीं रहा है, वह —नदी में गिर पड़ा है और वह प्रतीक्षा कर रहा है—परमात्मा जो करे!

जरा इस साधक की दृष्टि समझोगे। जरा इसका भाव समझोगे। इसका भाव बडा अदभुत है। यह कह रहा है, उसे बचाना होगा तो बचा लेगा। और नहीं उसे बचाना है, तो मेरे बचाए—बचाए भी कैसे बच पाऊंगा! इसलिए मैं व्यर्थ बीच में बाधा क्यों डालूं? जैसी उसकी मर्जी! उसकी मर्जी पूरी हो!

यह कर्मशन्यता की भावदशा है। इसको अष्टावक्र ने बड़ा ऊंचा माना है। इसको परम अवस्था कहा है। कहा है, कर्ता तो परमात्मा है। हम कर्ता बन जाते हैं, इससे सिर्फ अहंकार पैदा होता है। लेकिन अष्टावक्र की बात थोड़े से ही लोगों के काम की है, जो अकर्ता बनने में समर्थ हैं।

अब फर्क समझ लेना कृष्ण और अष्टावक्र की गीता का। कृष्ण की गीता उन लोगों के लिए है जो कर्मठ हैं। —क्या की गीता ठीक उलटी है अष्टावक्र की गीता से। कृष्ण की गीता कहती है, कर्म करो और कर्म में आसक्ति मत रखो, फलाकाक्षा मत रखो, लेकिन कर्म करो। अर्जुन भागना चाहता था। अगर अर्जुन को अष्टावक्र मिल गये होते तो अष्टावक्र कहते, बिलकुल ठीक, प्यारे, जल्दी भाग! परम आलसी हो जा। करना क्या है? करना— धरना उसका काम है, हम बीच में पड़े, क्यों? मगर अर्जुन भागना चाहता था और कृष्ण ने उसे खींचा और कहा, भाग मत! उसे अटकाया।

लेकिन कृष्ण ने ठीक किया, क्योंकि अर्जुन मूलतः कर्मठ व्यक्ति था, क्षत्रिय था। कर्म के ही लिए तैयार किया गया था। वही उसकी निष्ठा थी, वही उसकी कुशलता थी, वही उसके जीवन की शैली थी। यह अष्टावक्र की बात इसे जम भी नहीं सकती थी। अष्टावक्र अगर इसे चले भी जाने देते, यह जंगल में बैठ भी जाता तो भी बैठ नहीं सकता था। उठा लेता तीर, शिकार करता, लकड़ियां कांटता, कुछ न कुछ उपद्रव करता, यह बैठ नहीं सकता था। बैठने की इसकी संभावना नहीं थी, यह क्षत्रिय था, संघर्ष और संकल्प इसका गुण था।

तो कृष्ण ने उसे ठीक वही कहा जो उसके स्वधर्म के अनुकूल था। उससे कहा, स्वधर्मे निधन श्रेय: परधमों भयावह:। दूसरे के धर्म को पकड़ने में भय है अर्जुन। यह जो तू बातें कह रहा है —संन्यास की, समर्पण की, सब छोड़ देने की, त्याग की, यह तेरा धर्म नहीं है, क्योंकि यह तेरी जीवन—शैली नहीं है। मैं तुझे जानता हूं तुझे बचपन से जानता हूं, तेरे अंतरतम से जानता हूं अभी तुझे देख रहा हूं कि तेरे भीतर तो उबाल है, तूफान है, तू आधी बन सकता है, तू अंधड़ बनेगा तो ही प्रसन्न होगा। और प्रसन्न होगा तो ही परमात्मा को धन्यवाद दे सकेगा। योद्धा तेरे खून में छिपा है, तेरे हड्डी—मास—मज्जा में बैठा है, तू योद्धा होकर ही प्रभु के चरणों में सिर रख पायेगा। तू अपनी नियति को इसी तरह पूरा करेगा। यही तेरा भाग्य है। इससे तू भागेगा, बचेगा, तो तू परधर्म में पड़ेगा।

अब खयाल रखना, परधर्म और स्वधर्म का मतलब यह नहीं होता—हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन। नहीं, उन दिनों कोई मुसलमान तो थे नहीं भारत में, इसलिए यह तो कोई सवाल ही नहीं था, न कोई ईसाई थे, न कोई यहूदी थे, न कोई रग़रसी थे। इसलिए कृष्ण ने जब कहा स्वधर्म, परधर्म, तो उनका मतलब साफ है। मतलब इतना ही है कि जो तुम्हारे अनुकूल हो, वह स्वधर्म, जो तुम्हारे प्रतिकूल हो, वह परधर्म।

निश्चित ही, अगर तुम आलसी हो, अगर तुम्हें कर्म करने में कोई रुचि नहीं आती, करने मात्र में तुम्हें कोई रस नहीं आता—अपनी परख करना, अपनी जांच—परख करना, तुम्हें पता चल जाएगा। तुम्हारे जीवन के सुंदर क्षण कब आते हैं, जब तुम कुछ करते हो तब आते हैं, या तुम जब कुछ नहीं करते तब आते हैं, तुम्हारे जीवन के पराकाष्ठा के क्षण कब आते हैं? तुम जब आंख बंद करके बैठे हो तब आते हैं?....ओशो

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