शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१२)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*

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*उनयौ मेघ घटा चहुं दिश,*
*तेन वर्षन लगौ अखंडित धार ।* 
*बूड़ौ मेरु नदी सब सूकी,*
*झर लागौ निश दिन इकसार ॥* 
*कांसा पूर्यौ बीजली ऊपर,*
*कीयौ सब कुटुंब संहार ।* 
*सुंदर अर्थ अनूपम याकौ,*
*पंडित होइ सु करै बिचार ॥१२॥* 
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*= ह० लि० १ टीका =*  
उनयौ = उमग्यो । मेघ = मन । घटा = मनसा । धार = भजन । मेरु = अहंकार ।  नदी = नवद्वार । झर = नांव । कांसा = काया । बीजली = मनसा । कुटुंब = इन्द्रियाँ । अनूपं = उत्तम ॥१२॥

*= ह० लि० २ री टीका =* 
मेघरूपी मन को प्रेम उमग्यो । घटा नाम की अतिगति ता उमंड चली । चहुँ दिसतैं, चहूं अतः करणूंते । ताकरि अखंड भजनरूपा धार बरखन लागी । जब झर लाग्यो नाम रात - दिन अखंड की झरी लागी । 
तब मेरु नाम अति ऊंचो अहंकार, बूडि गयो नाम भजनजल बूडि गयो, खो गयो । नदी नाम नदी की नांई अखंड प्रवाहरूप नवद्वारां का जो विषय तिन के प्रवाह की नदी सूकि गई नाम भजन के प्रताप ते निवृत्त होइ गई । 
कांसा काय शुभ-कर्म क्रिया-कर्म या आपका पुरुषार्थ करि बीजली जो मनसा तापरि पर्यो नाम मनसा को जीती । ताका जीतना करि निर्वासनिक हूवो । तासों सकल इन्द्रियां की वृत्ति काउ संहार नास कीयो । नाम सर्व निवृत्ति हुई । 
याको अर्थ अनुपम नाम श्रेष्ठ है । जो कोई पंडित विवेकी होवैगा सोई बिचारैगो अर्थ को पावैगो अरु धारैगो ॥१२॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =*  
“ब्रह्मानन्द समुद्र में मग्न भया हुवा जगत में बिचरनेवाला जो आत्मज्ञानी है । ताकूं ही इहां मेघ कह्या है । सो आनंदरूप जलकरि उनयो(उमग्यौ) कहिये भर्यौ है । जाकी स्वरूपकारतारूप बादल की घटा छाई रही है । औ जो चैतन्यरूप आकाश में शरीररूप पर्वत की शिखर पर स्थिति है । सो परिपूर्ण ब्रह्मभाव चहुंदिशि में बढ्यो कहिये रमने लाग्यो । औ तेलकी धारा की न्यांई निरंतर प्रवाह वाली जो अखंडित आनंदयुक्त अनेक वृत्ति है, सोई मानों जल की अनेक धार है । तिनकरि बर्षन लायो, कहिये व्यापक ब्रह्म को अनुभव करने लग्यो । 
अहंकारादि जो जगत है ताकूं यहाँ मेरु कहै हैं । सो बूड़्यो, कहिये तीनकाल में अभाव निश्चयवृतिरूप बाघ को विषय भयो । औ बाह्य बाधित विषयाकार होने वाली जो मन की अनेक वृत्तिआं है सोई मानो सब नदी हैं । सो सूकी कहिये विषयन में अभिनिवेशभूत वासनारूप जल तें रहित भई । 
ताको निशदिन(रात्रिदिवस) तिन नदीन के उर कहिये बीच में, प्रथम वृत्ति के अंत, औ द्वितीय वृत्ति के आदिक्षण की मध्यावस्था में केवल स्वरूपाकार होने रूप एकतार(प्रवाह) लाग्यो । ज्ञान हुवे पीछे जो परवैराग्य होवै है सोई मानो कांसा है । सो सूक्ष्म राजसी औ तामसी स्वभाववाली चंचल बुद्धिरूप बिजली ऊपर पड्यो । तिसने रागद्वेषलोभादि आसुरी संपदारूप सब कुटुंब को संहार कीनो, कहिये नाश कियो । 
सुन्दरदासजी कहैं हैं - या(कथन) को जो अर्थ, सो अनुपम कहिये सर्वोत्कृष्ट होने तैं उपमा रहित है । तातें जो पुरुष पंडित कहिये स्वरूपाकार अंतःकरणवाला ज्ञानी होय सु याके अर्थ का बिचार करै । और पुरुष बिचार करी सकै नहीं ॥१२॥”

*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“सुंदर बरिषा अति भई, सूकि गये नदि नार । 
मेर बूडि जल मैं रह्यौ, झर लागौ इकसार ॥१८॥
कांसा पर्यौं पराकि दै, बिजली ऊपरि आइ । 
घर कौ सब टाबर मुवौ, सुंदर कही न जाइ” ॥१९॥ 
तथा -
“सुंदर बरिषा अति भई, सूकि सब साख । 
नींबी फल्यौ बहुभांति करि, लागे दाड्यौ दाख” ॥ ४५॥ 
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*= दादूजी महाराज की साखौ =* 
“अैसा अचिरज देखिया बिन बादल बरिषै मेह” ॥  
*= श्रीदादूवाणी ४ / ११४ =*
(क्रमशः)

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