बुधवार, 23 दिसंबर 2015

= ११२ =

卐 सत्यराम सा 卐
निराधार घर कीजिये, जहँ नांहि धरणि आकास ।
दादू निश्चल मन रहै, निर्गुण के विश्वास ॥ 
मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता मांहि ।
दादू पंचों पूरि ले, जहँ धरती अंबर नांहि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
ताओ
ताओ बहुत अनूठा शब्द है। उसके अर्थ को थोड़ा खयाल में ले लें तो आगे बढ़ने में आसानी होगी। ताओ के बहुत अर्थ हैं। जो भी चीज जितनी गहरी होती है उतनी बहुअर्थी हो जाती है। और जब कोई चीज बहुआयामी, मल्टी डायमेंशनल होती है, तब स्वभावतः जटिलता और बढ़ जाती है।
ताओ का एक तो अर्थ है: पथ, मार्ग, दि वे। लेकिन सभी पथ बंधे हुए होते हैं। ताओ ऐसा पथ है जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है; उड़ता है तब पथ तो निर्मित होता है, लेकिन बंधा हुआ निर्मित नहीं होता है। सभी पथों पर चरणचिह्न बन जाते हैं और पीछे से आने वालों के लिए सुविधा हो जाती है। ताओ ऐसा पथ है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, उनके पदों के कोई चिह्न नहीं बनते, और पीछे से आने वाले को कोई भी सुविधा नहीं होती।
तो अगर यह खयाल में रहे कि ऐसा पथ जो बंधा हुआ नहीं है, ऐसा पथ जिस पर चरणचिह्न नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे कोई दूसरा आपके लिए निर्मित नहीं कर सकता–आप ही चलते हैं और पथ निर्मित होता है–तो हम ताओ का अर्थ पथ भी कर सकते हैं, दि वे भी कर सकते हैं। लेकिन ऐसा पथ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए ताओ को पथ कहना उचित होगा?
लेकिन यह एक आयाम ताओ का है। तब पथ का एक दूसरा अर्थ लें: पथ है वह, जिससे पहुंचा जा सके; पथ है वह, जो मंजिल से जोड़ दे। लेकिन ताओ ऐसा पथ भी नहीं है। जब हम एक रास्ते पर चलते हैं और मंजिल पर पहुंच जाते हैं, तो रास्ता और मंजिल दोनों जुड़े हुए होते हैं। असल में, मंजिल रास्ते का आखिरी छोर होता है, और रास्ता मंजिल की शुरुआत होती है। रास्ता और मंजिल दो चीजें नहीं हैं, जुड़े हुए संयुक्त हैं। रास्ते के बिना मंजिल न हो सकेगी; मंजिल के बिना रास्ता न होगा। लेकिन ताओ एक ऐसा पथ है, जो मंजिल से जुड़ा हुआ नहीं है। जब कोई रास्ता मंजिल से जुड़ा होता है, तो सभी को उतना ही रास्ता चलना पड़ता है, तभी मंजिल आती है।
ताओ ऐसा पथ है कि जो जहां खड़ा है, उसी स्थान पर, उसी जगह पर खड़े हुए मंजिल को उपलब्ध हो सकता है। इसलिए ताओ को ऐसा पथ भी नहीं कहा जा सकता। जहां खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस स्थान पर, वहीं से मंजिल मिल सके; और ऐसा भी हो सकता है कि हम जन्मों-जन्मों चलें, और मंजिल न मिल सके; तो ताओ जरूर किसी और तरह का पथ है। इसलिए एक तो पथ का अर्थ है कहीं गहरे में, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
दूसरा ताओ का अर्थ है: धर्म। लेकिन धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, रिलीजन नहीं है। धर्म का वही अर्थ है जो पुरातनतम ऋषियों ने लिया है। धर्म का अर्थ होता है: वह नियम, जो सभी को धारण किए हुए है। जीवन जहां भी है, उसे धारण करने वाला जो आत्यंतिक नियम, दि अल्टिमेट लॉ, वह जो आखिरी कानून है वह। तो ताओ धर्म है–मजहब के अर्थों में नहीं, इसलाम और हिंदू और जैन और बौद्ध और सिक्ख के अर्थों में नहीं–जीवन का परम नियम। धर्म है, जीवन के शाश्वत नियम के अर्थ में।
लेकिन सभी नियम सीमित होते हैं। ताओ ऐसा नियम है जिसकी कोई सीमा नहीं है।
असल में सीमा तो होती है मृत्यु की; जीवन की कोई सीमा नहीं होती। मरी हुई वस्तुएं ही सीमित होती हैं; जीवित वस्तु सीमित नहीं होती, असीम होती है। जीवन का अर्थ ही है: फैलाव की निरंतर क्षमता, दि कैपेसिटी टु एक्सपैंड। एक बीज जीवित है, अगर वह अंकुर हो सकता है। एक अंकुर जीवित है, अगर वह वृक्ष हो सकता है। एक वृक्ष जीवित है, अगर उसमें और अंकुर, और बीज लग सकते हैं। जहां फैलाव की क्षमता रुक जाती है वहीं जीवन रुक जाता है। बच्चा इसीलिए ज्यादा जीवित है बूढ़े से; अभी फैलाव की क्षमता है बहुत।
तो ताओ कोई सीमित अर्थों में नियम नहीं है। आदमी के बनाए हुए कानून जैसा कानून नहीं है, जिसको कि डिफाइन किया जा सके, जिसकी परिभाषा तय की जा सके, जिसकी परिसीमा तय की जा सके। ताओ ऐसा नियम है जो अनंत विस्तार है, और अनंत-असीम को छूने में समर्थ है।
इसलिए सिर्फ धर्म कह देने से काम न चलेगा।
एक और शब्द है–ऋषियों ने उपयोग किया–वह शायद और भी निकट है ताओ के। वह शब्द है ऋत–जिससे ऋतु बना। वेद ऋत की चर्चा करते हैं, वह ताओ की चर्चा है। ऋत का अर्थ होता है…ऋतुओं से समझें तो आसानी हो जाएगी।
गरमी आती है, फिर वर्षा आ जाती है, फिर शीत आ जाती है, फिर गरमी आ जाती है। एक वर्तुल है। वर्तुल घूमता चला जाता है। बचपन होता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती है। एक वर्तुल है, वह घूमता चला जाता है। सुबह होती है, सांझ होती है, रात होती है, फिर सुबह हो जाती है। सूरज निकलता है, डूबता है, फिर उगता है। एक वर्तुल है। जीवन की एक गति है वर्तुलाकार। उस गति को चलाने वाला जो नियामक तत्व है, उसका नाम है ऋत।
ध्यान रहे, ऋत में किसी ईश्वर की धारणा नहीं है। ऋत का अर्थ है नियामक तत्व; नियामक व्यक्ति नहीं। नॉट परसन, बट प्रिंसिपल। कोई व्यक्ति नहीं जो नियामक हो, कोई तत्व जो नियमन किए चला जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि नियमन किए चला जाता है, क्योंकि इससे व्यक्ति का भाव पैदा होता है। नहीं, जिससे नियमन होता है, जिससे नियम निकलते हैं। ऐसा नहीं कि वह नियम देता है और व्यवस्था जुटाता है। नहीं, बस उससे नियम पैदा होते रहते हैं। जैसे बीज से अंकुर निकलता रहता है, ऐसा ऋत से ऋतुएं निकलती रहती हैं। ताओ का गहनतम अर्थ वह भी है।
लेकिन फिर भी ये कोई भी शब्द ताओ को ठीक से प्रकट नहीं करते हैं। क्योंकि जो-जो इनको अर्थ दिया जा सकता है, ताओ उससे फिर भी बड़ा है। और कुछ न कुछ पीछे छूट जाता है। शब्दों की जो बड़ी से बड़ी कठिनाई है, वह यह है कि सभी शब्द द्वैत से निर्मित हैं। अगर हम कहें रात, तो दिन पीछे छूट जाता है। अगर हम कहें प्रकाश, तो अंधेरा पीछे छूट जाता है। अगर हम कहें जीवन, तो मौत पीछे छूट जाती है। हम कुछ भी कहें, कुछ सदा पीछे छूट जाता है। और जीवन ऐसा है–संयुक्त, इकट्ठा। वहां रात और दिन अलग नहीं हैं। और वहां जन्म और मृत्यु अलग नहीं हैं। और वहां बच्चा और बूढ़ा दो नहीं हैं। और वहां सर्दी और गरमी दो नहीं हैं। और वहां सुबह सूरज का उगना सांझ का डूबना भी है। जीवन कुछ ऐसा है–संयुक्त, इकट्ठा। लेकिन जब भी हम शब्द में बोलते हैं, तो कुछ छूट जाता है। कहें दिन, तो रात छूट जाती है। और जीवन में रात भी है।
तो अगर हम कहें कोई भी एक शब्द–यह है ताओ, यह है मार्ग, यह है धर्म, यह है ऋत–बस हमारे कहते ही कुछ पीछे छूट जाता है। समझ लें, हम कहते हैं, नियम। नियम कहते ही अराजकता पीछे छूट जाती है। लेकिन जीवन में वह भी है। नियम कहते ही वह जो अनार्किक, वह जो अराजक तत्व है, वह पीछे छूट जाता है।....osho

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