गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

= १३५ =

卐 सत्यराम सा 卐
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भैय हुआ न जाइ ।
काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥ 
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धर्या रणजीत ।
साहिब अपना कर लिया, अन्तरगत की प्रीति ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
प्रार्थना की भाषा भी कामना की ही भाषा है, संन्यासी को इतना सम्मान दिया। सम्मान का कारण क्या है, कोई पूछे! कारण यही है कि जिसको हम मरते दम तक नहीं छोड़ पाते, उसे संन्यासी ने जीते जी, जीवन की परम शक्ति के क्षणों में भी छोड़ दिया। जिसमें हम फंसे ही रहते हैं, उससे संन्यासी ने मुंह मोड़ लिया। वासना की कीचड़ से तभी अलग हो जाना, जब तुम्हारे पास धमनियों में रक्त बहता हो, हृदय में बल हो, बुद्धि में प्रखरता हो। जवानी का उपयोग कर लेना। 
परमात्मा तक जाना हो तो जवानी का उपयोग कर लेना। क्योंकि उसके मंदिर में भी नाचते हुए जाना पड़ता है, उत्सव से भरे जाना पड़ता है। वहां मुर्दे और लाशों की तरह मत पहुंचना। स्ट्रेचर पर पड़े हुए मत पहुंचना। नहीं तो वे मंदिर के द्वार भी तुम्हारे लिए नहीं खुलेंगे। भगवान का मंदिर कोई अस्‍पताल नहीं है! वह महोत्सव है। जो तुमने जीवन—ऊर्जा वासना की बलिवेदी पर चढ़ायी है, वही वासना की वेदी पर चढायी गयी ऊर्जा जिस दिन तुम प्रार्थना की वेदी पर चढ़ाते हो, उसी दिन धार्मिक हो पाते हो। ऊर्जा वही है, वेदियां बदल जाती हैं। 
संसार का देवता है, फिर भगवान है, ऊर्जा वही है। इसलिए तुम अक्सर पाओगे कि जैसे कोई मजनू लैला के लिए दीवाना होता है, वैसा ही कोई चैतन्य कृष्ण के लिए दीवाना हो जाता है। दीवानगी वही है। जैसे कोई शीरीं फरहाद के लिए पागल होती है, वैसे ही कोई मीरा कृष्ण के लिए पागल हो जाती है। पागलपन वही है। अगर तुम मनोवैज्ञानिक को पूछो—खासकर फ्रायडियन मनोवैज्ञानिक को—तो वह तो कहेगा कि यह वासना का ही प्रक्षेपण है। इसमें कुछ बहुत भेद नहीं है। क्योंकि मीरा कृष्ण से वही तो बातें कर रही है जो आमतौर से स्त्रियां अपने प्रेमी से चाहती है—कि मैंने सेज सजायी है, देखो कितने फूल सेज पर बिछाए हैं और तुम अभी तक नहीं आए! यह भाषा तो कामना की है, वासना की है। सच, प्रार्थना की भाषा भी कामना की ही भाषा है, सिर्फ मंदिर का देवता बदल गया है। प्रार्थना उतनी ही प्रज्वलित होती है, जितनी वासना। यह वही तेल है, जो वासना में जलता है और वासना के दीए में जलता है, यह वही तेल है जो प्रार्थना के दीए में भी जलता है। इसलिए अगर मीरा कहती है कि सेज मैंने सजायी है, फूल बिछाए हैं, आंखें बिछाए तुम्हारे रास्ते पर बैठी हूं और तुम अभी तक नहीं आए! और मैं तुम्हें पुकार रही हूं मेरे प्राण—प्यारे, तुम आओ! मैं तुम्हारे लिए नाच रही हूं। आओ हम संग—संग खेलें, संग—संग नाचे! आओ हम रास रचाएं! यह भाषा तो वासना की ही है। कोई विरहिणी जैसे अपने पति के लिए पुकारती हो, या अपने प्रेमी के लिए पुकारती हो। इस भाषा में और उस भाषा में कोई भेद नहीं है। परमात्मा है भी हमारा प्रेमी, हम हैं उसके प्रेमी। सत्य को जब कोई उतनी ही त्वरा से पुकारता है जितनी त्वरा से उसने अपनी कामना के विषयों को पुकारा था, तभी सत्य तक पुकार पहुंचती है। तुम्हारी प्रार्थना अगर तुम्हारी वासना से कमजोर है, तो कभी सफल नहीं होगी। तुम्हारी प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए कि तुम्हारी सारी वासनाओं की जीवन—ऊर्जा उसमें प्रविष्ट हो जाए। सारी वासनाएं इकट्ठी होकर जब प्रार्थनारत होती हैं, तभी कोई पहुंचता है।.....OSHO

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