गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१८)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*परधन हरै करै पर निंदा,*
*पर धी कौं राषै घर मांहिं ।* 
*मांस खाइ मदिरा पुनि पीवै,*
*ताहि मुक्ति कौ संशे नांहिं ॥* 
*अकर्म ग्रहै कर्म सब त्यागै,*
*ताकी संगति पाप नसाहिं ।* 
*अैसी कहै सु संत कहावै,*
*सुन्दर और उपजि मरि जाहिं ॥१८॥* 
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*= ह० लि० १,२ टीका =* 
परधन नाम परायो धन । पर जो विवेकी संत तिन को धन जो ज्ञान ताकों संतन का उपदेश करिके हृदा में धारण करै । परनिंदा नाम अनात्म देहादि ताकी निंदा विनाशवांत है जड है मलीन है यों निंदा करै ते आसक्ति निवृत्त होय ।  -  पर नाम विवेकी संत तिनकी धी कहिये जो निर्मल शुद्ध बुद्धि कों अपना घर जो घट तामें राखै । 
मांस नाम पदार्थों की ममता ताकों खाय नाम जीतै दूरि निवारै । अरु मदिरा नाम मोह जासों बाबलो बेसुध हो जाय ताकौं ज्यूं ज्यूं पुरुषार्थ  करि पीवै उपजण देवै नहीं । ऐसा पुरुषार्थ जो करै ता पुरुष के मुक्ति को संशय नहीं वह मुक्ति रूप ही है । .
अकर्म नाम निरहंकारता वा ब्रह्मस्वरूप । कर्म नाम साहंकारता वा ब्रह्मव्यतिरिक्त संसार देहादी सो ता कर्म कों त्यागि के वा अकर्म को ग्रहण करै ऐसा पुरुष की संगति कर्याँ  सर्व पाप दूरि होवै । 
जो ऐसा कार्य नहीं करते हैं उनका जन्म लेना वृथा है । ऐसा करते हैं वेही संत - महात्मा कहे जाने के योग्य हैं ॥१८॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
पर कहिये जो संत  -  महात्मा पुरुष हैं तिनके ज्ञान वैराग्यादिक शुभगुणयुक्तरूप धन कूं हरै कहिये ग्रहण करिके अपने चित्तरूप भंडार में राखै । पर कहिये जो अहंकारादि जो जगत् रूप अनर्थ हैं तिनकी निंदा करै कहिये तिनके असत् जड और दुःखतादिक - स्वरूप का कथन करै । पर जो कहिये जो सत् पुरुष हैं तिनकी ज्ञानयुक्त जो श्रेष्ठ बुद्धि है, अथवा जो ब्रह्माकार बुद्धि है सोई मानो तिन(सत्पुरुषन) की तिय(स्त्री) है । ताकूं हृदयरूप घर मांहि राखै कहिये स्थिर करै । 
जैसे शरीर में मांस सम्पूर्ण रहै है तैसे ब्रह्म सर्वात्मा है औ सर्वत्र परिपूर्ण है । तिस का जो आनन्द है सोई मानौ मांस है । ताकूं खाय कहिये अनुभव करै । परिपूर्ण स्वरूपानंद कू सहायता करने वाला जो ज्ञान - विचारादिक है ताकूं ही इहाँ मदिरा कहैं हैं । सो पुनि कहिये फिरि पीवै । कहिये स्मरण करै जाके अमल में मदिरा - मदांध की न्याई देह को स्मृति रहै नहीं । ऐसे उक्त परधन जो हरै हैं परकी स्त्री(धी कूं) घर में राखै है । मांस खावै है औ मदिरा पीवै है । ताकि मुक्ति को संशय नांहिं । कहिये सो मोक्षरूप ही है । 
देहेंद्रियादी करि लौकिक व वैदिक कर्म करै । परन्तु “मैं आत्मा अकर्त्ता हूँ” इस निश्चयरूप अकर्म ताको गहै कहिये ग्रहण करै है । अथवा जो अक्रिय ब्रह्म है ताकूं गहै कहिये “सोई मैं हूँ” ऐसे निश्चयरूप अकर्म ताको ग्रहण करै है । औ मैं “पापी हूँ पुण्यवान हूं” इस प्रकार के कर्म के अभिमान कूं छोडै । अथवा माया का कार्य जो देहादि जगत् है ताकूं दृढ मिथ्या नीश्चय करै है । सोई मानौ सब कर्म त्यागै है । उक्त प्रकार करि जिसने अकर्मता का ग्रहण औ सब कर्म का त्याग किया है । ताकी संगत करि पाप नसांहि कहिये नाश होवै है । 
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि जो ज्ञानी पुरुष ऐसी रहेणी करै सु सर्वजन करि वा शास्त्र करि संत कहावै । औ जो अज्ञानी पुरुष है बारं - बार उपजि के मरजांहि । कहिये जन्म धारिके मरण कूं पावैं हैं ॥१८॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साखी =*
पारधी लैकरि घर धरै, परधन हरि हरि खाइ । 
पर - निदा निष् दिन करै, सुंदर मुक्तिहि जाइ ॥२४॥  
मांस भषै मदिरा पिवै, वह तौ अगम अगाध । 
जो अैसी करनी करै, सुंदर सोई साध ॥२५॥ 
(क्रमशः)

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