बुधवार, 2 दिसंबर 2015

= ६९ =


卐 सत्यराम सा 卐
यहु परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नांहि ।
अन्तर की जाणैं नहीं, ता तैं खोटा खांहि ॥
दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ ।
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
मनुष्य की हकीकत ~
गुरजिएफ अपने शिष्यों को लेकर एक बार तीन महीने के लिए जंगल में रहा। और तीन महीने पूर्ण मौन में अपने शिष्यों को रखा। पूर्ण - मौन, बेशर्त मौन था, उसमें कोई समझौते की गुंजाइश न थी। मौन का अर्थ था, न तो बोलना, न दूसरे की तरफ देखना, न आंख से कोई इशारा करना, न हाथ से कोई इशारा करना - क्योंकि वह सब बोलना है। अगर दो मौन में मिलने वाले रास्ते पर मिले और उन्होंने ऐसे सिर झुका दिया तो बात खतम हो गयी। गुरजिएफ ने तो यह भी कहा कि अगर तुम्हारे चलते किसी के पैर पर पैर पड़ जाए तो भी तुम इस तरह का भाव प्रगट मत करना कि तुमने दूसरे के पैर पर पैर रख दिया, क्षमा करो। सरक भी मत जाना इस तरह, नहीं तो वक्तव्य हो गया। बोले न बोले, यह सवाल नहीं है।

एक छोटे से बंगले में तीस आदमियों को रख दिया, बडी मुश्किल हो गयी। एक - एक कमरे में चार - चार, छह - छह लोग थे। अब चार - चार, छह - छह लोगों के साथ कैसे बिलकुल बिना इशारा किए भी बैठे रहो! अनजाने इशारे होने लगे, गुरजिएफ लोगों को निकालने लगा। तीन महीने पूरे होते - होते तीस में से केवल तीन व्यक्ति बचे। जिसको भी उसने देखा कि जरा भी उसकी भाव - भंगिमा बोलने की है, उसको उसने बाहर कर दिया। मगर उन तीन व्यक्तियों पर अपूर्व घटना घटी।

तीन महीने के बाद उन तीन व्यक्तियों को लेकर गुरजिएफ ने कहा, आओ, अब तुम्हें मैं नगर ले चलूं। अब तुम पहली दफे देखोगे कि आदमी कैसा है। तो वह तीनों शिष्यों को लेकर नगर में आया। उनमें से एक शिष्य आस्पेंस्की ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि हमने पहली दफे देखा कि आदमी कैसा है! उसके पहले तो हमने देखा ही नहीं था। रहते आदमी में थे!

तिफलिस नगर में आकर पहली दफे देखा कि लाशें चल रही हैं। कोई जिंदा नहीं मालूम होता। कोई होश में नहीं है। मुर्दे बातें कर रहे हैं। सोए - सोए लोग चले जा रहे हैं रास्तों पर, भागे चले जा रहे हैं। लोग बात भी कर रहे हैं, लेकिन एक - दूसरे को सुन ही नहीं रहे हैं। कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ जवाब दे रहा है। कोई जमीन की कह रहा है, कोई आकाश की मार रहा है। तीन महीने का सन्नाटा ऐसी स्वच्छता दे गया, दर्पण ऐसा साफ हो गया कि दूसरों के हृदय के बिंब बनने लगे, दूसरों के चित्त के बिंब उतरने लगे।

आस्पेंस्की ने अपने गुरु को कहा, वापस चलें, बहुत घबडाहट होती है, यह तो मुर्दों का गांव है, कहा ले आए? यह वही गांव, जहां वर्षों रहे। लेकिन कभी इन आदमियों को देखा नहीं, क्योंकि हम भी वैसे ही थे, तो कैसे देखते! अंधों के बीच अंधे थे, तो अंधों का पता कैसे चलता। अंधों के बीच अगर तुम एक बार आंखें तुम्हारी ठीक हो जाएं और लौटो, तब तुम देखोगे कि सब टटोल रहे हैं! सब भटक रहे हैं। कोई गड्डे में गिर गया है, कोई नाली में गिर गया है, कोई कुएं में गिर गया है, सब गिरे हुए हैं। अजीब हालत चल रही है, किसी के पास आंखें नहीं हैं और सबको भरोसा है कि सब जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। ऐसा ही भरोसा तुम्हें भी था।....ओशो

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