रविवार, 20 दिसंबर 2015

= १०४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू उलट अनूठा आप में, अंतर सोध सुजाण ।
सो ढिग तेरे बावरे, तज बाहर की बाण ॥ 
सुरति अपूठी फेरि कर, आत्म मांही आन ।
लाग रहै गुरुदेव सौं, दादू सोई सयान ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
एक अल्हड़ युवक रास्ते पर जा रहा था। उसकी दृष्टि एक चमकते हुए पत्थर पर पड़ी। अहा, उसने कहा, रंगीन पत्थर, प्यारा पत्थर! उसने उसे उठा लिया और उसे हाथ में उछालता हुआ और गीत गाता हुआ रास्ते पर चलने लगा। वह पत्थर कोई साधारण पत्थर न था, बहुमूल्य हीरा था। लेकिन उसने तो इतना ही जाना कि रंगीन पत्थर है, घर ले जाएंगे, छोटे बच्चे खेलेंगे।

गीत गाता और पत्थर को उछालता जब वह चल रहा था, इसी बीच मिला एक सवार और उस सवार ने कहा, मित्र, मुट्ठी बंद कर लो। युवक ने कहा, क्यों? वह समझा ही नहीं और पत्थर को अब भी उछालता खड़ा रहा। सवार ने फिर कहा, पत्थर नहीं है, हीरा है, बहुमूल्य हीरा है। जो मुट्ठी खुली थी वह अचानक बंद हो गयी, उछालना बंद हो गया। न केवल मुट्ठी बंद हुई, उसने जल्दी से खीसे में रख लिया। उसने कहा, भाई, धन्यवाद!

उस सवार ने पूछा, पहले मैंने कहा मुट्ठी बंद कर लो, तुमने न की। और अब तो मैंने मुट्ठी बंद करने को कहा ही न था, मैंने कहा था हीरा है, तुम्हारी मुट्ठी बंद क्यों हो गयी?

जब पता चल जाए हीरा है, तो मुट्ठी बंद हो ही जाएगी। हीरे पर मुट्ठी बंद हो जाती है। जरा सा फर्क पड़ा, ज्ञान का फर्क, बोध हुआ कि हीरा है, सब बदल गया। व्यवहार बदल गया। मगर बोध स्वयं होना चाहिए।

अब ये बाहर के जो हीरे हैं, इनका बोध तो कोई दूसरा भी दिला दे तो हो जाता है, क्योंकि हीरा तुम्हारे बाहर है और दूसरे के भी बाहर है। जौहरी कह दे कि यह हीरा है, तो तुम्हें भरोसा आ जाता है। लेकिन जिन हीरों की मैं बात कर रहा हूं वे हीरे भीतर के हैं और कोई जौहरी उनके संबंध में कुछ भी नहीं कह सकता। और कुछ कहे भी तों भी जब तक तुम्हारी अंतर्दृष्टि न हो, तब तक तुम्हें कैसे दिखायी पड़ेगा! वह तो बाहर की आंखें खुली थीं उस युवक की, तो उसने देख लिया कि यह बात ठीक ही कह रहा है, यह रंगीन पत्थर नहीं है, हीरा है। शक तो शायद उसे भी हुआ होगा—शक ही हुआ होगा—चमकती हुई सूरज की किरणों में उस हीरे पर, एक दफे तो उसे भी खयाल आया होगा कि कहीं बहुमूल्य न हो! मगर बहुमूल्य हीरे ऐसे सड्कों के किनारे थोड़े ही पड़े रहते! तो मान लिया होगा कि रंगीन पत्थर है। लेकिन भीतर कहीं कुछ बात तो लगी होगी। जब इस सवार ने कहा कि हीरा है, बस एक क्षण में चोट पड़ गयी। लेकिन बाहर की आंख खुली थीं।

समझो कि यह युवक अंधा होता और सवार कहता कि हीरा है, तो भी यह कहता, क्यों मजाक करते हो! एक तो यह सड़क, यहां कहा से हीरे आते हैं! फिर मैं अंधा, मुझ अंधे के हाथ कहा से हीरे लगते हैं! इतने आंख वाले गुजर रहे हैं, कोई भी उठा लिया होता! और फिर अंधा कहता कि मुझे तो कुछ पता नहीं चलता कि हीरा है कि पत्थर है। पत्थर ही मालूम होता है, क्योंकि वजनी मालूम होता है।

वह तो भला था कि उसकी आंख खुली थीं, अंधा नहीं था। लेकिन भीतर के संबंध में तो हम सब अंधे हैं, उस तरफ तो हमने आंख खोली नहीं है, वहां तो आंख बंद है। उस भीतर की आंख खोलने का नाम ध्यान है।

ध्यान की आंख खुल जाए तो गुरु के वचन तत्क्षण ऐसे तुम्हारे भीतर उतर जाते हैं, जैसे तीर चला जाए और ठीक हृदय पर चुभ जाए। मगर ध्यान रखना, फिर भी मैं कहता हूं गुरु के वचन। ध्यान के बाद भी शास्त्र के वचन काम नहीं करेंगे, ध्यान के बाद भी गुरु के वचन काम करेंगे। क्यों? क्योंकि जब गुरु बोलता तो सिर्फ बोलता ही नहीं, उस बोलने के पीछे गुरु के होने का बल होता है।...osho

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