बुधवार, 9 दिसंबर 2015

= ८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
कोमल कमल तहँ पैसि कर, जहाँ न देखै कोइ ।
मन थिर सुमिरण कीजिये, तब दादू दर्शन होइ ॥ 
नखसिख सब सुमिरण करैं, ऐसा कहिये जाप ।
अन्तर बिगसै आत्मा, तब दादू प्रगटै आप ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
[ रमैनी ८ ]
तत्तुमसी इन्हके उपदेशा। ........ ई उपनिषद कहहिं संदेसा ॥ 
ई निस्चै इन्हके बड़ भारी। . वाहिक बरनन करैं अधिकारी ॥
परम तत्तु का निज परमाना। सनकादिक नारद शुक माना ॥
जागबलिक अौ जनक संबादा। ... दत्तात्रय वोहि रस स्वादा ॥ 
उहै राम वशिष्ष्ठ मिलि गाई। वोही बात कृष्ण ऊधो समझाई ॥
उहै बात जे जनक दिढ़ाई। .................. देह धरे विदेह कहाई ॥
टीका - वह तू है, अर्थात जिसे तू खोज रहा है वह परमतत्व(सत्यात्मा, ईश्वर) तू है, यही इन अद्वैतवाद के ज्ञानियों का उपदेश है। यही संदेश उपनिषदें कहती हैं। इन अद्वैतवादियों का यही सर्वोपरि निश्चय है। अधिकारी सुयोग्य जिज्ञासुओं के सामने ये इसी वर्णन उपदेश करते हैं।
परमतत्व का अपना प्रमाण है; अथवा परमतत्व(आत्मा) स्वतः प्रमाण है। इसी तत्वमसि-मत को सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद तथा शुकदेव ने माना है। इसी पर याग्यवल्क्य और जनक जी संवाद हुआ है और दत्तात्रेय जी ने इसी का रसास्वादन(अनुभव) किया है।
श्रीराम और उनके गुरु वशिष्ठ जी ने मिलकर इसी को गाया, अर्थात इसी का विचार किया है। इसी को श्रीकृष्ण ने उद्धव को समझाया है। इसी मत को जनक जी ने दृढ निश्चय किया, जिससे वह देह धरे हुए भी विदेह कहलाए।
विशेष - इस रमैनी में "तत्वमसि" महावाक्य के उपदेश पर प्रकाश डाला गया है। "तत्वमसि" का अर्थ है -- तत् - त्वम् - असि, वह तू है। तात्पर्य है कि जिस परमतत्व को तू खोज रहा है, वह तू है। तू नाशवान जड़ शरीर नहीं, अपितु अविनाशी आत्मा है। तेरा स्वयं का, अपने-आप का जानना ही उस परमतत्व को जान लेना एवं पाना है। तू सब दृश्यों का द्रष्टा एवं साक्षी है तू सत्य एवं सार है।
संत कबीरदास !
सौजन्य - बीजक रमैनी !

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