बुधवार, 9 दिसंबर 2015

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卐 सत्यराम सा 卐
जीवों का संशय पड़या, को काको तारै ।
दादू सोई शूरमा, जे आप उबारै ॥ 
जे निकसे संसार तैं, सांई की दिशि धाइ ।
जे कबहुँ दादू बाहुड़े, तो पीछे मार्या जाइ ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~

संशय सावज शरीर में, संगहि खेलै जुआरी। 
ऐसा घायल बापुरा,......... जीवहिं मारे झारि ॥ 

संशय रूपी पशु शरीर में रहता है और वह जीव के साथ मानो जुआ खेलता है, अर्थात संशय रूप पशु अज्ञानी जीव को घेरकर उसे सत्य-पथ से हटाने और भवजाल में फंसाने का दांव-पेंच लगाता रहता है। बेचारा जीव अनेक दुखों की चोट से इतना तो घायल है और उस जीव को एवं ऐसे सभी जीवों को संशय पशु पछाड़ कर मार रहा है। 

तातपर्य यह है कि संशय, जीव को विभिन्न संकल्पों में उलझाये हुए उसे सत्य-पथ से विचलित कर देता है और मिथ्या सांसारिक सुख-लाभ पाने को उकसाता रहता है। जैसे जुए में जुआरी को अंत तक कुछ पाने की आशा लगी ही रहती है, वैसे ही संशय की स्थिति में अज्ञानी जीव को एक के बाद एक अन्य सुख पाने की लालसा बढ़ती जाती है, यही संशय का उससे जुआ खेलना है। इससे जीव सदा असंतुष्ट एवं दुखी रहता है। संशयग्रस्त जीव परमसत्य या आत्मस्वरूप-स्थिति को प्राप्त न कर विनाश को प्राप्त होता है, अर्थात वह जन्मता-मरता है। यदि सद्गुरु से सत्यज्ञान प्राप्त कर जीव चेत जाए तो वह संशय रूप पशु को मार डालता है अथवा उसका संशय स्वतः समाप्त हो जाता है। 

सार बात यह है कि संशय की पूर्ण निवृति होने पर ही जीव परम सत्य को, आत्म साक्षात्कार को प्राप्त होता है। 

संत कबीरदास !

सौजन्य -- बीजक रमैनी !

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