मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=९)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*कपरा धोबी कौं गहि धोवै,*
*माटी बपुरी घरै कुम्हार ।* 
*सुई बिचारी दरजिहि सींवै,*
*सोना तावै पकरि सुनार ॥* 
*लकरी बढई कौं गहि छीलै,*
*खाल सु बैठी धवै लुहार ।* 
*सुन्दरदास कहै सो ज्ञानी,*
*जो कोउ याकौ करै बिचार ॥९॥*

*= ह० लि० १ टीका  =*  
कपरा = काया । धोबी = मन । मांटी = मनसा । कुम्हार = प्राण । सुई = सुरत । दरजी = जीव । सीवै = जीव  -  ब्रह्म की एकता करै । सोना = सुमरन । सुनार = मन । लकरी = लै(लय) । बढ़ई = कर्म । षाल = काया का स्वास । लुहार = जीव व मन ॥९॥ 
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*= ह० लि० २ टीका =*  
कपरा नाम काय तासों बण्या जो भजन सतसंग शुभकर्म तिनां सों धोबी जो मन सो निर्मूल हवा । मन धोबी क्यूं करि ? मन निर्मल तन निर्मल भाई मांटी जो मनन अरु प्राणायामरूप अभ्यास सो कुम्हार सो वा मन कों धरै है । क्यों ? जो यो प्राण है सो सर्व बृतियां को उत्पादक है । क्रियाशक्ति द्वारा करि प्राणादि करि भजन क्रिया की सिद्धि होवै है । 
सुईरूप अतितीक्षण जो सुरति सो दरजी जो ताकी शक्ति सों सुईरूपी सुरति अपने कार्य में प्रवृत्त होवै है । ता अपना प्रेरक जीव ताकूं सीवै नाम ब्रह्म में एकता करै है । अथवा भ्राँतिअलंकार भी है । सुई सुरति ताकूं जीव दरजी सीवै ब्रह्म में लगावै । इत्यर्थः । सोना नाम अति निर्मल निर्विकार स्मरन सो सुनाररूप जो मन जाकै आसिरै स्मरन वैन सो सोना । वा मन सुनार कूँ तावै नाम शुद्ध करै । 
‘मन मंजन हरि भजन है प्रगट प्रेम की सीर’ । 
लकरी जो लय ताको भागवत के विषै लगाइलै, सो बढ़ई नाम कर्म ताकूं छीलै नाम दूरि करै कर्म बढ़ई करि । जो बढ़ई नाम खाती सो अनेक घाट घडै, यों कर्म भी चौरासी का देहां का अनेक घाट घड़ै, तासों बढ़ई । खाल नाम काया व स्वास सो लुहार नाम जीव व मन ताकूं भ्रमावै है, प्राण वायु कै आसरै मनकी चंचलता होवै है, प्राण थिर कर्याँ मन थिर होवै है । ‘स्वास मनोरथ वचन करि मन की जीवनि तीन’ । 
याको विचार नाम याका अर्थ को जो सिद्धान्त ताकूं बिचरि करि धारै, वाको नाम ज्ञानी है ॥९॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
चिदाभास सहित मनरूप कपरा(वस्त्र) जो, पूर्व अज्ञान दशा में पुण्यरूप धोबी से पापरूप मल को दूर करने के वास्ते, धोया जाता था । सो अब ज्ञानदशा में आप धोबी कूं गहि(पकरि के) धोबै कहिये “मैं अकर्ता हूं औ असंग हूं”  -  ऐसे शुद्ध निश्चय तें पापपुण्य ते निर्लेप रहै है । आत्मा के सन्मुख भई अंतरवृति बुद्धि रूप माटी । जो पूर्व अविद्याकाल में बाह्यवृत्तिमय मनरूप कुम्हार के बस भई । तिसकरि अनात्माकार होने रूप आप घड़ाती थी । सो अब विद्या दशा में बपरी कहिये स्वरूपाकार होने रूप कार्य में प्राप्त होय के मनरूप कुंभारन अनात्म पदार्थ सें विमुख करि घड़ै, कहिये अपने में अंतर्भाव करै है । 
वुद्धि में जो सूक्ष्म विचार होवै है सो बुद्धि वृत्तिरूप परिणाम कूं पावै है सो वृत्ति भी सूक्ष्म होवै है, या तैं ताकूं सुई कही है । सो बिचारी कहिये गरीबरी है । काहे तें, जो जिस ओर इस कूं ले जावै उस ओर यह चली जावै है । जैसे अज्ञानकाल में जब देहाभिमान होवै है और तिसकरि विषयन में वासना होवै है तब मानों तिसी धागे के बलकरि “मैं देह हूं और मैं कर्ता भोक्ता संसारी जीव हूँ” इसी तरफ चली जावै है । तहां चलाने वाला चिदाभास सहित अहंकार है सोई मानों दर्जी है तिस के वश होय रहै है । सोही ज्ञानकाल में जब स्वरूप का साक्षत्कार होवै है, तब तिसके बलतें तिस चिदाभास सहित अहंकार(जीव) रूप दर्जीहि ब्रह्म में मिलाय देवै है, सोई मानों सीवै है । बुद्धि उपहित साक्षी जो आत्मा है सो स्वभाव तें ही अति शुद्ध है तातें सो ही मानों सोना है । सो पूर्व संसार दशा में अज्ञान के वश में चिदाभासरूप सुनार के अधीन था । तिस के कर्तृत्व औ भोक्तृत्वादिक धर्म अपने में आरोप कर लेता था, त्रिविधतापयुक्त संसाररूप अग्नि में तापता था । औ अनेक दुःखन कूं सहता था । सो ज्ञानरूप अग्नि में पाप  -  पुण्य सुख  -  दुःख औ गमन  -  आगमनरूप मल कूं जलवाने के वास्तै चिदाभासरूप सुनार कूं पकरि कहिये अपने में कल्पित जानि के तावै कहिये शुद्धता के निश्चय तें अधिष्टानरूप आप में समावेश करै है । 
भागत्यागलक्षणा करि लक्ष्य का ज्ञान होवै है । सो लक्ष्य शुद्ध चेतन कूं कहै हैं, तिसका बिवेचन करने वाली बुद्धि है सोई मानों लकरी है । औ जो मायाकरि सर्व प्राणीन कूं अंतःकरण में प्रेरणा करै है औ तिन के कर्मानुसार फल भोग देवै है । ऐसे जो माया उपाधिवाला ब्रह्मचेतन है(ईश्वर) सोई मानों बढ़ई(सुतार-खाती) है । ताकूं गहि कहिये कूटस्थ निरंतर आत्मा में अभिन्न निश्चय करि कै छीलै, कहिये मिथ्या माया उपाधि तें रहित करै है । जो सर्व पदार्थ में ब्रह्म भाव करि स्मरण होवै है । ता(निरोध) कूं राजयोग में प्राणायाम कहै हैं । तिस प्राणायाम-युक्त जो बुद्धि है सोई मानों खाल कहिये धमनी है । औ उक्त प्राणायाम के अभ्यास में प्रवृत्ति करवाने वाला जो मन है सो ही मानों लुहार है, तिस लुहार कूं सु कहिये वे खाल बैठी कहिये स्थित भई हुई धर्म कहिये बश करै है । 
*सुन्दरदास जी* कहैं है कि जो कोई या(विपर्यय कथं के सिद्धांतरूप अर्थ कूं) को यथार्थ विचार करै कहिये विचार द्वारा निश्चय करै सो पुरुष ज्ञानी है ॥९॥

*= सुन्दरदासजी की साषी =*  
“धोबी कौं उज्जल कियौ, कपरै बपुरै धोइ ।
दरजी कौं सींयौ सुई, सुन्दर अचिरज होई ॥१०॥ 
सोनै पकरि सुनार कौं, काढ्यौ ताइ कलंक । 
लकरी छील्यौ बाढई, सुन्दर निकसी बंक” ॥११॥
(क्रमशः)

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