मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५३ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५३ दिन ३५ =*
*= जीव, ब्रह्म संबन्धी विचार व ब्रह्म प्राप्ति का साधन =*
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अकबर बादशाह ने कहा - स्वामिन् ! आपने कहा था जीव ब्रह्म की सेवा करता है, तब ब्रह्म के बराबर हो जाता है, सो कृपा करके बताओ वह उत्तम सेवा कौन सी है ?
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अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले -
"दादू नीका नाम है, सो तू हिरदै राखि ।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सुन साधू जन की साखि ॥"
परब्रह्म प्राप्ति के हेतु उत्तम और सुगम सेवा नाम स्मरण रूप निदिध्यासन है । अनात्माकार वृत्तियों से रहित ब्रह्माकार वृत्ति की स्थिति को ही निदिध्यासन कहते हैं । इसी को योगी लोग अखंड ध्यान कहते हैं और संत निरंतर-स्मरण कहते हैं । सो निरंतर नाम चिन्तन द्वारा ही जीव ब्रह्म के बराबर होता है किन्तु यह होता है पाखंड और मायिक प्रपंच को ह्रदय से हटाने पर । यही इस साधन को करने वाले संतों की साखी सुनी जाती है ।
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निमष न न्यारा कीजिये, अंतर तैं उर नाम ।
कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम ॥
आत्म स्वरूप राम का अभेद अर्थ बोधक नाम एक निमेष भी हृदय के भीतर से नहीं हटाना चाहिये । केवल अभेद अर्थ बोधक आत्मस्वरूप राम के नाम स्मरण रूप निदिध्यासन से अमित पतित पवित्र होकर राम के स्वरूप को प्राप्त हो गये हैं ।
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ब्रह्म भक्ति जब ऊपजे, तब माया भक्ति विलाय ।
दादू निर्मल मल गया, ज्यूं रवि तिमिर नशाय ॥
जैसे सूर्योदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही प्राणी के हृदय में परब्रह्म की भक्ति उत्पन्न होने पर मायिक प्रेम नष्ट हो जाता है और संपूर्ण विकार नष्ट होकर मन परम निर्मल बन जाता है तब परम निर्मल आत्मा की परम निर्मल ब्रह्म से एकता का अनुभव स्वतः ही होने लगता है । उस समय जो आनन्द का अनुभव होता है उसकी समता संसार का कोई सुख नहीं कर सकता ।
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दादू सब सुख स्वर्ग पयाल१ के, तोल तराजू बाहि२ ।
हरि सुख एक हि पलक का, ता सम कह्या न जाहि ॥
स्वर्ग पातालादि१ के संपूर्ण सुखों को और एक क्षण के ब्रह्मानन्द को विचारतुला में रखकर२ तोलें तो स्वर्गादि के संपूर्ण सुख ब्रह्मानन्द के सामान नहीं हो सकते । क्यों नहीं हो सकते ? वे तो पदार्थ जन्य होने से नाशवान् हैं और ब्रह्मानन्द ब्रह्म ज्ञान जन्य होने से नित्य है । अतः ब्रह्मानन्द की समता नहीं कर सकते ।
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"निगम हि अगम विचारिये, तउ पार न पावै ।
तातैं सेवक क्या करे, सुमिरण ल्यौ लावै ॥"
वेद के द्वारा विचार करने पर भी, माया से परे अगम ब्रह्म का स्वरूप नाम स्मरण रूप निदिध्यासन के बिना प्राप्त नहीं हो सकता । इसलिये ब्रह्म-साक्षात्कार की इच्छा वाला साधक, वेदादि शास्त्रों का अत्यधिक विचार करके क्या करेगा ? उसे तो निरंतर नाम स्मरण रूप निदिध्यासन में ही अपनी वृत्ति लगानी चाहिये ।
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दादूजी महाराज के उक्त उपदेश को सुनकर अकबर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बीरबल तथा आमेर नरेश भगवतदास आदि भी अति प्रसन्न हुये । अकबर ने कहा - स्वामिन् ! आपको बारंबार धन्यवाद है और तो आप कुछ ग्रहण करते ही नहीं, हम आपकी क्या सेवा करें । फिर भी हम अपने को आपके दर्शन और उपदेश से इस संसार में धन्यवाद के योग्य ही मानते हैं । अब सत्संग का समय समाप्त हो गया था,इससे अकबर ने उठकर अति प्रेम पूर्वक दादूजी के चरणों में अपना मस्तक नमाकर प्रणाम किया । फिर आज्ञा मांगकर बीरबल और आमेर नरेश भगवतदास के साथ वाहनों पर बैठकर राजभवन को चले गये । उसके पश्चात् अन्य सब श्रोता भी अपने-अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य-संत भी अपनी दैनिक साधना में लग गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३५ विन्दु ५३ समाप्तः । =
(क्रमशः)

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