शनिवार, 19 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=६)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*देव मांहि तें देवल प्रगट्यौ,*
*देवल ! मंहिं तैं प्रगट्यौ देव !* 
*शिष्य गुरुहि उपदेशन लागौ,*
*राजा करै रंक की सेव ॥*
*वंध्या पुत्र पंगु इकु जायौ,*
*ताकौ घर खोवन की टेव ।* 
*सुन्दर कहै सु पण्डित ज्ञाता,*
*जो कोउ याकौ जानै भेव ॥६॥* 
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*= ह० लि० १ टीका =*
देव = परमेश्वर । देवल = शरीर । देवल = शरीर पुनः । देव = परमेश्वर पुनः । शिष्य = चित्त । गुरु = मन । राजा = रजोगुण वा मन । रंक = जीव । बंध्या = आत्मा वा बुद्धि । पुत्र = ज्ञान गुणातीत । घर = शरीर ॥६॥ 
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*= ह० लि० २ री टीका =* 
देव जो परमेश्वरजी सर्व को कारणरूप, तामैं सों स्वइच्छा संसार उत्पत्ति द्वारा, देवल शरीर प्रगट्यौ उत्पन्न हुवो । अब देवल ही में, गुरु शास्त्र संत उपदेश विबेक सों, देव परमेश्वरजी की प्राप्ति हुई । 
शिष्य चित्त । शिष्य क्यूं ? जो पहले मनरूपी गुरु के आधीन आज्ञावर्ती हो, सो अब अपना विवेक बलकों पाय गुरु रूप होय अति बलवंत ताही मनकों शुद्ध शिक्षादितें शिष्य बनाय आपकै बसि में लावण लाग्यौ । राजा नाम रजोगुण वा मन, सो अज्ञान अवस्था में बलवंत होय कै आपका स्वरूप ज्ञानरूपी धन करि हीन रंक जो जीव ताकौं आपका हुक्म सों कर्मां मैं प्रेरकै चलावै हो । अब वोही जीव गुरु उपदेश बिवेक बल कों प्राप्त हुवो, तब वोही राजागुण मनजीव की सेवा करनैं लागो । 
बंध्या नाम बुद्धि । बंध्या क्यूं ? जो सर्वगुण विकार वृति उत्पत्ति-रहित महानिर्मल शुद्ध, ताकै एक पुत्र नाम ज्ञान पुत्र हुवो । सो पंगुल क्यूं ? सर्वगुण रहित एक रस । घर - जा शरीर रूपी घर मैं उपज्यो ता घरको खोवण की टेव, अर्थात् ज्ञान उपज्यो तब जन्म-मरण रहित हुवो । 
सोई पंडित ज्ञानी है जो याका अर्थ का भेव नाम सिद्धान्त कूं जाणैं नाम निश्चै निरणैं करै ॥६॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
सर्व का अधिष्ठान और कूटस्थ आत्मा रूप(जो) देव(ता) मांहि तैं देहरूप देवल प्रगट्यौ, कहिये साक्षी विषे, स्वप्न की न्यांई, भ्रांति से प्रतीत भयो । तिस देहरूप देवल मांहि सत् शास्त्र औ सद्गुरू के बोध(कराने) ते(पूर्व अज्ञान काल में जो प्रगट नहीं था सो) सो आत्मा रूप प्रगट्यो, कहिये स्व - स्वरूप करि अपरोक्ष(प्रगट) भयो । 
शिष्य - पूर्व अविवेक काल में प्रबल मनरूप गुरु की शिक्षा कूं मानने वाला साभास अंतःकरण सहित विशिष्ट चेतनरूप जो जीव है । सो जीवरूप शिष्य विवेक काल में ब्रह्मविद्या कूं पायके, तिस मनरूप गुरुहि उपदेशन लाग्यो, कहिये शिक्षा करिये सूधे मार्ग में प्रवृत्ति करवाने लाग्यो । पूर्व अज्ञानकाल में अपने अधिष्ठान कूटस्थकूं आप दबाय के, अवस्था सहित तीन देहरूप नगरीन का अभिमानरूप राज्य के करने वाला जो अहंकाररूप राजा । सो जीवभावरूप कंगालता कूं पाया हुवा आत्मरूप रंक की - ज्ञानकाल में ब्रह्मभव कूं प्राप्त हवा जो आत्मा, ताके वश हुआ, ‘मैं देहादिक हूं’ इस आकार कूं छोडिके ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस आकाररूप धारणा की सेव करै हैं ।
राजसी औ तामसी वृत्ति रूप आसुरी संपदा से रहित सात्विकी बुद्धिरूप बंध्या(माता) ने ज्ञानरूप इक पंगु पुत्र जायो कहिये बहिर्मुखवृत्तिरूप पगनतें रहित पुत्र उत्पन्न कियो । सो कैसो है ? जाकी उक्त वुद्धिरूप माता है, शुद्ध अहंकार पिता है, रागादि वृत्तिरूप भगिनिआं हैं, कर्मरूप भाई है, जगतरूप दादा है, औ अज्ञानरूप परदादा है । ताकूं इस संघात(शरीर) रूप घर खोवन की टेव पड़ी है । अर्थात ज्ञान हुवे पीछे और कुछ रहै नहीं ।
सुन्दरदासजी कहते हैं कि जो कोई याको कहिये अभिप्राय जानै । सो पुरुष पंडित ज्ञाता कहिये क्षोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ है ॥६॥ 
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*सुन्दरदासजी की साषी -*
“गुरु शिष के पायनि परयौ, राजा हूवो रंक । 
पुत्र बांझ कै पंगुलै, सुन्दर मारी लंक” ॥८॥ 
(क्रमशः)

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