शनिवार, 19 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५२ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५२ दिन ३४ =*
*= मूर्ति पूजा संबन्धी विचार =*
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कामधेनु के पटतरे१, करे काठ की गाय ।
दादू दूध दूझे नहीं, मूरख देय बहाय ॥
चिंतामणि कंकर किया, माँगे कछू न देय ।
दादू कंकर डार दे, चिंतामणि कर लेय ॥
कामधेनु के सामान१ काष्ठ की गाय बना ले तो भी वह दूध तो नहीं दे सकेगी, उसकी सेवा करने वाला मूर्ख प्राणी अपने आयुरूप धन को भी व्यर्थ ही खो देगा । और कोई मूर्ख प्राणी कंकर को चिन्तामणि मान कर उसकी सेवा करे तो भी वह माँगने पर कुछ नहीं देगा । इसलिये कंकर को छोड़कर हरिरूप चिन्तन करके हरि को प्राप्त करना चाहिये ।
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पारस किया पषाण का, कंचन कदे न होय ।
दादू आतमराम बिन, भूल पड़े सब कोय ॥
सूरज फटक१ पाषाण का, तासे तिमिर न जाय ।
सांचा सूरज परगटे, दादू तिमिर नशाय ॥
मूरति घड़ी पषाण की, किया सिरजनहार ।
दादू साँच सूझे नहीं, यूं डूबा संसार ॥
जैसे किसी पत्थर को पारस मान लेने पर भी उसके लोहा स्पर्श कराने पर वह सुवर्ण नही बन सकता । लोहे को सुवर्ण तो सच्चा पारस ही बना सकता है । और जैसे श्वेत१ पत्थर का सूर्य बना लिया जाय तो भी उससे अंधकार नष्ट नहीं होता ।
अंधकार तो सच्चे सूर्य से ही नष्ट होता है, वैसे ही पत्थर की मूर्ती को सृष्टि कर्ता परमात्मा मान लिया जाय तो भी आत्मस्वरूप राम के चिन्तन बिना सत्य परब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता है, तो भी सब अज्ञानी प्राणी प्रभु का चिन्तन भूलकर भ्रम में पड़े हुये हैं । इसी से अज्ञानी प्राणियों का समूह संसार-सिन्धु में डूबा है अर्थात् जन्मादिक कलेश भोग रहा है । जन्मादिक संसार से मुक्ति तो सत्य परब्रह्म के साक्षात्कार से ही होती है और साक्षात्कार आत्मज्ञान से ही होता है । अन्य सब साधन आत्मज्ञान के हेतु हैं । यही यथार्थ निर्णय है ।
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उक्त उपदेश सुनकर अकबर ने पूछा - भगवन् ! मूर्ती भी तो उसी परमात्मा की ही बनाई जाती है फिर उसकी उपासना से प्राणी का मुक्तिरूप कार्य क्यों नहीं सिद्ध होता है ? अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी ने कहा -
"पुरुष विदेश कामिनि किया, उस ही के उणहार ।
कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार ॥
कागज़ का माणस किया, छत्रपती शिरमौर ।
राज पाट साधे नहीं, दादू परिहरि और ॥
जैसे किसी कामिनि का पति विदेश गया हो तब वह कामिनि उस अपने पति के समान ही एक मिट्टी का पुरुष बनाकर घर में रख ले किन्तु उस बनाये हुये मूर्तीरूप पुरुष से पति से होने वाले संतान आदि का कार्य तो सिद्ध नही हो सकते, वह तो केवल देखने मात्र का ही होता है । जिससे कोई कार्य सिद्ध नहीं हो उसका तो त्याग करना ही योग्य है । और जैसे किसी देश का राजा मर जाय तब वहां की प्रजा एक कागज़ का मनुष्य बनाकर उसको अपना शिरोमणि छत्रपति राजा बनाकर राजगद्दी पर बैठा दे, तो भी वह राजपाट का कार्य तो सिद्ध नहीं कर सकता । इसी प्रकार अन्य आकारों को त्याग कर परमेश्वर के भजन द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करना योग्य है ।
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सकल भुवन भाने घड़े, चतुर चलावनहार ।
दादू सो सूझे नहीं, जिसका वार न पार ॥
जो सर्व प्रकार समर्थ परमात्मा संकल्प मात्र से संसार को अपने से ही बनाता है और अपने में ही लीन कर लेता है तथा संसार का संचालन करने में भी अति चतुर है और जिसका वार पार किसी को भी ज्ञात नहीं होता है, वह परमात्मा ज्ञान नेत्रों के बिना अज्ञानी प्राणियों को नही दीखता है, इसी से वे मूर्ती का आश्रय लेते हैं ।
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दादू जिन कंकर पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाय ।
अलखदेव अंतर बसे, क्या दूजी जागां जाय ॥
जिन्होंने केवल कंकर पत्थरों की ही सेवा-पूजा की और परमात्मा का भजन ध्यानादि साधन नहीं किया, उन्होंने तो अपना आयुरूप मूल धन भी व्यर्थ ही खो दिया । मन, वाणी का अविषय अलखदेव तो अपने ह्रदय देश में ही साक्षीरूप से बस रहा है । उसकी सेवा-पूजा के लिए दूसरे स्थानों में क्यों जाता है ? अपने हृदय-कमल पर विराजे हुए प्रभु की भावनामय उपचारों से पूजा क्यों नहीं करता है ?
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उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह बोला भगवन् ! अब मैं आपका आशय समझ गया हूँ कि जिनको निर्गुण निराकार परब्रह्म का ज्ञान नहीं है, वे लोग ही सगुण साकार की उपासना करते हैं और जिनको निर्गुण निराकार परब्रह्म का ज्ञान होता है, वे निर्गुण निराकार की अभेदरूप पराभक्ति करते है । सगुण साकार की उपासना से निर्गुण निराकार की उपासना श्रेष्ठ है ।
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सगुण साकार के उपासकों को उनकी वह साधना परमात्मा कि ओर बढ़ाती है और अंत में उनके ज्ञान नेत्रों को खोल देती है । आपके उपदेश के द्वारा मूर्तिपूजा संबन्धी मेरे मन की शंका नष्ट हो गई है । आप ने पक्षपात रहित होकर मुझे अति सुन्दर उपदेश दिया है । आपके ज्ञान की महिमा भी अपार है । ऐसा ज्ञान अन्य संत तथा विद्वानों से मैंने पहले कभी भी नहीं सुना था । आज मैं अपने को परम धन्य समझता हूँ ।
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इतना कहकर बादशाह ने हाथ जोड़कर अनेक प्रणाम किये फिर सत्संग का समय समाप्त हुआ जानकर बादशाह उठ खड़ा हुआ और दादूजी के चरणों में मस्तक नमाकर तथा आज्ञा मांगकर बीरबल तथा भगवतदास के साथ राजभवन में चले गये । बादशाह के जाने के पश्चात् सर्व साधारण श्रोता भी प्रणाम करके अपने-अपने घरों को चले गये । दादूजी शिष्य संत भी अपने-अपने दैनिक कार्यों में संलग्न हो गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३४ विन्दु ५२ समाप्तः । =
(क्रमशः)

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