बुधवार, 20 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/२०-१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाऊँ ।
जहं आसन अमर अलेख था, ले राखे उस ठाऊँ ॥१९॥
जिन गुरुदेव ने मुझे उपदेश द्वारा सँसार - दशा से उठाकर जिस निर्विकल्प समाधि स्थान में जहां अमर अलेख ब्रह्म का आसन था, उसमें स्थित कर दिया है । उन गुरुदेव की मैं बलिहारी जाता हूं ।
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ज्ञानोत्पत्ति
आतम मांहीँ ऊपजै, दादू पँगुल ज्ञान ।
कृत्रिम जाय उल्लंघि कर, जहां निरंजन थान ॥२०॥
२० - २१ में आत्मज्ञानोत्पत्ति और उसका लाभ बता रहे हैं - गुरु की कृपा से भक्ति सम्पन्न बुद्धि में गुण रूप चरण शक्ति से रहित आत्मज्ञान उत्पन्न होता है । उसके बल से साधक अपने बनावटी "मैं, तू" आदि सँसार को उल्लँघन करके, जिस अवस्था में निरन्तर अद्वैत भावना ही रहती है, उस अवस्था रूप निरंजन ब्रह्म के स्थान को प्राप्त होता है ।
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आत्म बोध बँझ का बेटा, गुरुमुख उपजै आइ ।
दादू पँगुल पँच बिन, जहां राम तहां जाइ ॥२१॥
आत्म - ज्ञान भक्ति सम्पन्न निश्चय बुद्धि रूप वन्ध्या का पुत्र है । गुरु मुख से निकले शब्द, श्रवण द्वारा बुद्धि में आते हैं तब वह उत्पन्न होता है । उसके बल से साधक का मन पँच विषयाशा रूप पाद शक्ति से रहित होकर जिस निर्विकल्पावस्था में निरंजन राम का साक्षात्कार होता है, वहां जाता है ।
(क्रमशः)

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