बुधवार, 20 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६३ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६३ =*
*= अलोदा प्रसंग, शिष्य लाखा नरहरि =*
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हिन्दौण से चलकर हरि चिन्तन करते हुये शनैः शनैः अलोदा ग्राम के पास वन में ठहरे । अलोदा में सौंक्या गोत्र के खंडेलवाल वैश्य लाखा और नरहरि दो भक्त निवास करते थे । वे अच्छे श्रीमान् सेठ थे, दादूजी का नाम सुनकर वे भी दादूजी का दर्शन करने आये और प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सन्मुख बैठ गये ...
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फिर अवसर देखकर बोले - स्वामिन् ! हमें भी हमारा जिससे कल्याण हो ऐसा उपदेश दीजिये । तब दादूजी ने उनका अधिकार देखकर कि इनका धन, जन, तन में राग है, अतः इनको प्रथम वैराग्य हो तब ही ये साधन में आगे बढ़ सकते हैं । यह विचार करके दादूजी ने यह पद कहा -
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"माया संसार की सब झूंठी ।
मात पिता सब ऊभे भाई, तिनहिं देखतां लूटी ॥टेक॥
जब लग जीव काया में थारे, क्षण बैठी क्षण ऊठी ।
हंस जु था सो खेल गया रे, तब तैं संगति छूटी ॥१॥
ए दिन पूगे आयु घटानी, तब निचिन्त हो सूती ।
दादू दास कह ऐसी काया, जैसे गगरिया फूटी ॥२॥"
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संसार की सभी माया मिथ्या है, वैसे ही काया भी मिथ्या है । माता, पिता, भाई आदि सभी संबन्धियों के खड़े रहते भी उनके देखते-देखते ही लूटी जाती है ।
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जब तक काया में जीव था तब तक तो यह किसी क्षण में बैठती थी और किसी क्षण में उठती थी, किन्तु इसमें जो जीव-हंस था वह जब से गमन रूप खेल, खेल गया है, तब से लोगों ने इसका संग छोड़ दिया है ।
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अब ये जीवन के दिन पूरे हो गए हैं और आयु समाप्त हो गई है । इससे यह काया निश्चित होकर सूती है । हम तो अनुभव करके कहते हैं कि - जैसे फूटी गागर बेकार हो जाती है, वैसे ही यह काया भी जीवात्मा के गमन से बेकार हो जाती है । तुमने भी ऐसे दृश्य जगत् में अपने जीवन के समय में बहुत देखे होंगे । अतः वैराग्य पूर्वक प्रभु का भजन करने से ही कल्याण होता है ।
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उक्त पद सुनकर लाखा ने कहा - स्वामिन् ! यदि आप माया को झूठी ही बता रहे हैं, तब तो इसका सर्वथा त्याग ही उचित है । इसके सर्वथा त्याग के लिये आप हमको साधु भेष प्रदान कर दीजिये, जिससे सर्वथा माया का त्याग करके आपके साथ रहते हुये अपने कल्याण का साधन करैं । लाखा की उक्त बात सुनकर दादूजी ने कहा - जब तक अपना मिथ्या अहंकार दूर नहीं होता है, तब तक भेष-मात्र से कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है ।
(क्रमशः)

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