सोमवार, 25 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/३१-३)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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शब्द दूध घृत राम रस, कोई साधु बिलोवणहार ।
दादू अमृत काढ ले, गुरु - मुख गहै विचार ॥३१॥
सद्गुरु शब्द - दूध में ब्रह्मानन्द - घृत भरा है किन्तु कोई श्रेष्ठ जिज्ञासु ही उसे मन्थन करने वाला होता है और गुरु - आज्ञा में रहने वाला होता है । वही जिज्ञासु सद्गुरु - शब्दों से ज्ञानामृत निकाल कर विचार पूर्वक ग्रहण करता है ।
घीव दूध में रम रह्या, व्यापक सब ही ठौर । 
दादू बकता बहुत हैं, मथ काढैं ते और ॥३२॥
सद्गुरु - शब्द - दूध के प्रत्येक अणु में, परमार्थ तत्व रूप घृत व्यापक रूप से रमा हुआ है । उन शब्दों के बोल ने वाले तो बहुत मिलते हैं, किन्तु उन्हें श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा मन्थन कर अन्तर्मुख वृत्ति से उनमें से परमार्थ तत्व निकाल कर ग्रहण करने वाले अन्य ही होते हैं ।
कामधेनु घट घीव है, दिन - दिन दुरबल होइ । 
गोरू१ज्ञान न उपजै, मथ नहिं खाया सोइ ॥३३॥
दूध घृतादि पँच गव्य के द्वारा प्राणियों की कामना पूर्ण करने वाली गो के शरीर में घृत है किन्तु उस पशु१ में उसे निकाल कर उपभोग करने का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । इसी से प्रतिदिन बुड्ढी होती जाती है । इसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा रूप होने से सँपूर्ण कामनाप्रद है । इसके तीनों शरीरों में आनँद स्वरूप ब्रह्म भी व्यापक है फिर भी अज्ञानी को गुरु उपदेश बिना उसका वास्तविक ज्ञान नहीं होता । इस कारण विचार - मथानी से मन्थन करके उस ब्रह्मानँद का आस्वादन नहीं कर सका । केवल शास्त्र द्वारा परोक्ष - ज्ञान प्राप्त करके कथन ही किया है, इससे बारँबार जन्म - मरण रूप दुर्बलता को ही प्राप्त हो रहा है ।
(क्रमशः)

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