सोमवार, 25 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६५ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६५ =*
*= पुनः अलोदा गमन, वासी प्रसंग, शिष्य नागर, निजाम, आँधी से आमेर =*
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लाखा नरहरि आदि भक्तों ने एक व्यक्ति को पहले भेजकर अलोदा को सूचना भेज दी कि दादूजी महाराज पधार रहे हैं, अमुक स्थान की सफाई कराकर जल भरा देना, हम स्वामी दादूजी महाराज को साथ लेकर आ रहे हैं ।
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उस व्यक्ति से सूचना प्राप्त करके वहां के बहुत से भक्त लोग दादूजी के सन्मुख स्वागत सत्कार के लिये आये और साष्टांग प्रणाम करके संकीर्तन करते हुये नियत स्थान पर ले गये । वहां ठहरा कर अन्य सब व्यवस्था करदी । सत्संग प्रतिदिन होने लगा ।
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कुछ दिन अलोदा रहकर दादूजी महाराज ने विचरने का विचार किया तब अलोदा के भक्तों ने प्रणाम करके क्षमा याचना की । दादूजी ने सब भक्तों को मधुर वचनों से प्रसन्न किया और अलोदा से विचर गये । फिर शनैः शनैः वसी ग्राम में पधार गये, वहां के बागडे ब्राह्मणों में प्रभु की भक्ति थी ।
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उन्होंने दादूजी का बहुत सत्कार किया और ग्राम से उत्तर की ओर तालाब पर एक पर्ण कुटीर पर ठहराया ।(महन्त चेतनदेवजी ने अपने रचित दादू जीवनचरित्र में लिखा है कि वसी से उत्तर की ओर के तालाब पर एक सुन्दर कुटीर के चिन्ह अभी भी हैं । इससे सूचित होता हैं कि उस कुटीर के चिन्ह आज से पचास वर्ष पूर्व तक थे) ।
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दादूजी महाराज शिष्यों के सहित वसी के तालाब पर कुटीर में विराज रहे थे, उन्हीं दिनों में एक दिन दो यात्री वहां आये थे, उनमे से एक तो गुजराती नागर ब्राह्मण था, वह काशी की यात्रा करने जा रहा था और दूसरा मुलतान निवासी निजाम नामक मुसलमान था ।
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यह निजाम अजमेर सूवा के उच्चपदाधिकारी थे किन्तु इनको वैराग्य हो जाने से सहसा अपने घर से निकल गए थे और आगरा की ओर घूमकर मक्का की यात्रा करने की इच्छा से लौटे थे ।
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दोनों यात्री वसी के तालाब पर सायंकाल आये थे और वहां ही ठहर गए थे । फिर दोनों ने अपना-अपना परिचय परस्पर एक दूसरे को दिया और बातें करते करते ही रात्रि में निद्रा के वश हो गये । फिर सूर्योदय होने पर भी वे नहीं उठे तब उन यात्रियों को सोते देखकर परम दयालु दादूजी महाराज ने यह पद बोला -
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"बटाऊ चलणां आज कि काल्ह,
समझ न देख कहा सुख सोवे, रे मन राम संभाल ॥टेक॥
जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा, पक्षी बैठे आय ।
ऐसे यहु सब हाट पसारा, आप आपको जाय ॥१॥
कोई नहिं तेरा सजन संगाती, जनि खोवे मन मूल ।
यहु संसार देख जनि भूले, सबही सेमल फूल ॥२॥
तन नहिं तेरा, धन नहिं तेरा, कहा रह्यो इहिं लाग ।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जाग ॥३॥"
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हे प्राणी पथिकों ! तुम्हें आज या कल जाना ही होगा, तुम विचार कर के नहीं देखते, कैसे सुख से सो रहे हो ? अरे मन से राम का चिन्तन करो, जैसे वृक्षों में श्रेष्ठ वृक्ष पर पक्षी आ कर बैठते हैं और रात्रि को निवास करके प्रातः उड़ जाते हैं तथा जैसे हाट की वस्तुओं का फैलाव सायंकाल ठिकाने लग जाता है, वैसे ही ये सब संसार के प्राणी अपने अपने कर्मानुसार अन्य शरीरादि में चले जाते हैं ।
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इस संसार में तुम्हारा सज्जन तथा साथी कोई भी नहीं है । तुम मन से अपने मूल प्रभु का चिन्तन करे बिना ही समय तो नहीं खो रहे हो ? इस मिथ्या संसार को देखकर प्रभु क्यों भूल रहे हो ? यह तो सब सेमल पुष्प के समान बहकाने वाला है । यह शरीर और धन तुम्हारे नहीं हैं इनमें क्यों अनुरक्त हो रहे हो ? प्रभु के दर्शन बिना क्यों सुख से सो रहे हो ? अज्ञान निन्द्रा से जागकर प्रभु को क्यों नहीं देखते ?
(क्रमशः)

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