सोमवार, 11 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/१-३)



॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= अथ श्री गुरुदेव का अँग १ =
परमार्थ का ज्ञान गुरु से ही होता है, अत: गुरु विषयक विचार करने को गुरु अँग कहने में प्रवृत्त हुये प्रथम मँगलाचरण कर रहे हैं : -
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दादू नमो नमो निरंजनँ, नमस्कार गुरुदेवत: ।
वन्दनँ सर्व साधवा, प्रणामँ पारँगत: ॥१॥
सँत प्रवर श्री स्वामी दादूजी महाराज, अपने इष्टदेव माया रहित परब्रह्म को बारँबार प्रणाम करके, उनकी प्राप्ति में मुख्य हेतु गुरुदेव तथा गुरु और परब्रह्म प्राप्ति के साधारण कारण सर्व सँतों को प्रणाम करके, प्रणाम का फल बता रहे हैं - जो श्रद्धा सहित परब्रह्म, गुरु और सँतों को सदा प्रणाम करता है, वह असत्य सँसार से पार जाकर सत्य ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
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परब्रह्म परापरँ, सो मम देव निरंजनम् ।
निराकारँ निर्मलँ, तस्य दादू वन्दनम् ॥२॥
जो निराकार, निर्मल और माया से परे परब्रह्म है, वही निरंजन देव मेरे इष्टदेव हैं । मैं उन्हें प्रणाम करता हूं ।
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गुरु प्राप्ति और फल
दादू गैब१ मांहिं गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।
मस्तक मेरे कर धर्या, दख्या२ अगम अगाध ॥३॥
३ - ६ में सद्गुरु प्राप्ति और उसका फल बता रहे हैं : - अकस्मात्१ गुरुदेव प्राप्त हुये, उन्होंने मेरे मस्तक पर हाथ रखा तथा उनका कृपा प्रसाद मुझे प्राप्त हुआ । मन इन्द्रियों के अविषय निर्गुण और अपार स्वरूप की दीक्षा२ दी । बाल्यावस्था में अहमदाबाद के काँकरिया तालाब पर भगवान् ने दर्शन देकर उपदेश किया, तब यह साखी कही थी । प्रसंग कथा दृष्टांत सुधा - सिन्धु तरँग ७/९२ में देखो।
(क्रमशः)

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