सोमवार, 11 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६० =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६० =*
*= दादूजी आगरा में =*
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प्रथम निवास आगरा के पास दादूजी सीकरी गये थे तब दादूजी के साथ ७ शिष्य थे और जग्गाजी, राघवदासजी और सादाजी ये तीन सीकरी जाते समय सीकरी के पास मिले थे । माधवदासजी, जनगोपालजी सीकरी में मिले थे । इन्हीं १२ शिष्यों के साथ सीकरी से आगरा को प्रस्थान किया था तब दादूजी का नाम सुनकर मार्ग में आस-पास के ग्रामों के लोग दादूजी के दर्शनों के लिये खड़े हुये मिलते थे ।
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वे दादूजी के दर्शन करके अति प्रसन्न होते थे । अन्न जल आदि की सेवा के लिये प्रार्थना करते थे । दादूजी सबको मधुर वचनों से प्रसन्न करते हुये आगरा की और बढ़ रहे थे । आगरा के संत, भक्तों को भी सूचना मिली थी कि - दादूजी आगरा होते हुये आगे जायेंगे ।
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इससे आगरा के संत तथा भक्त गण को भी दादूजी के दर्शन तथा सत्संग की इच्छा हुई । वे लोग आने के समय का अनुमान करके आगरा के बाहर एक बाग में दादूजी को ठहराने की व्यवस्था करने लगे और दादूजी के आने की प्रतीक्षा में रहे । दादूजी आये तब संत, भक्तों ने उन का स्वागत करते हुये प्रणाम किया और उस बाग में दादूजी को शिष्यों के सहित ठहराया ।
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फिर सेवा की सब व्यवस्था करके संत तथा भक्तगण दादूजी के पास बैठे और एक संत ने पूछा - स्वामिन् ! बादशाह तो चमत्कार के भूखे होते हैं किंतु सुना जाता है कि बादशाह ने आप से कोई चमत्कार दिखाने की बात नहीं करी है सो क्या बात है, बताने की कृपा करें ? उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज ने कहा -
"दहुँ बीच राम अकेला आपै, आवण न जावण देई ।
जहँ के तहँ सब राखे दादू, पार पहुँचे सेई ॥"
संतों ! बादशाह अकबर के और मेरे बीच में अद्वैत स्वरूप राम स्वयं स्थित थे, इससे न तो अकबर के मुख से करामात दिखाने संबन्धी बात आने दी और न मेरे मुख से करामात दिखाने संबन्धी बात अकबर की ओर जाने दी । हम दोनों को जहां के तहां रक्खा । इससे इस निष्काम भाव को सेवन करके ही हम करामात देखने की और दिखाने की भावना के पार पहुंच गये थे ।
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कहा भी है -
"गुरु दादू गये सीकरी, परचा लिया न दीन्ह ।
राम बीच दोउंके रहे, चरचा ही में चीन्ह ॥"
अर्थात् बादशाह अकबर को करामात लेने वा अपना ऐश्वर्य देने का आग्रह नहीं रहा । क्यों ? दोनों के मध्य रमताराम की ही चर्चा होती रही, इससे अकबर बादशाह उस चर्चा में ही दादूजी को पहचान गया कि - ये तो करामात आदि से परे प्रभु परायण रहने वाले उच्चकोटि के संत हैं, इनसे करामात दिखाने की बात नहीं करनी चाहिये । यह सोचकर बादशाह निष्काम ही रहा ।
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उक्त विचार को सुनकर आगरा के संत तथा भक्त गण के भी समझ में आ गई कि - यह तो ठीक ही है, जैसा संग होता है, वैसा ही रंग लगता है । दादूजी महाराज निष्कामी संत थे, इससे इनके संग से बादशाह भी इनके पास तो निष्कामी ही बना रहा, इससे करामात दिखाने की बात इनके सामने नहीं कह सका । फिर आगरा के एक भक्त ने प्रार्थना की - स्वामिन् ! हमें भी उच्चकोटि के संतों की साधन पद्धति का उपदेश कीजिये, जिससे हम भी उनकी सहज साधना से लाभ उठायें ।
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तब दादूजी ने यह पद कहा -
"हँस सरोवर तहां रमैं, सूभर हरि जल नीर ।
प्राणी आप पखालिये, निर्मल सदा हो शरीर ॥टेक॥
मुक्ताहल मन मानिया, चुगे हँस सुजान ।
मध्य निरंतर झूलिये, मधुर विमल रस पान ॥१॥
भ्रमर कमल रस वासना, रातो राम पीवंत ।
अरस परस आनन्द करे, तहां मन सदा हो जीवंत ॥२॥
मीन मगन मांहीं रहै, मुदित सरोवर मांहिं ।
सुख सागर क्रीडा करैं, पूरण परिमिति नाहिं ॥३॥
निर्भय तहँ भय को नहीं, विलसे बारंबार ।
दादू दर्शन कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥४॥
जहां हृदय सरोवर में हरि स्वरूप जल परिपूर्ण रूप से भरा है, वहां संत-हंस रमण करते हैं । उस नीर से जो प्राणी अपने अहंकारादि दोषों को धोता है, उसका शरीर सदा के लिये निर्मल हो जाता है ।
बुद्धिमान् संत-हंसों का मन ब्रह्म स्वरूप मुक्ताहल के चिन्तन रूप चुगने में ही प्रसन्न हुआ है और अति मधुर, विमल दर्शन-रस पान कर के उसी के आनन्द में निरंतर झूलता रहा है ।
जैसे भ्रमर कमल के वास-रस को पान करता है, वैसे ही संत-मन राम में अनुरक्त होकर राम-दर्शन-रस पान द्वारा अरस-परस आनन्द लेते हुये सदा सजीवन होने जा रहा है ।
जैसे मच्छी सरोवर में निमग्न रहकर प्रसन्न रहती है, वैसे ही अपरिमित परिपूर्ण सुख सागर ब्रह्म में संत क्रीड़ा करते हैं ।
वह ब्रह्म निर्भय स्थान है, वहां कोई भी प्रकार का भय नहीं है । संत वहां ही प्रतिक्षण ब्रह्मानन्द का उपभोग करते हैं । तुम भी स्मरण द्वारा सृजनहार परमात्मा के सन्मुख होकर उनके दर्शन करो ।
दादूजी के उक्त उपदेश से आगरा के सभी संत तथा भक्त गण अति प्रसन्न हुये । फिर दादूजी को प्रणाम करके वे सब अपने-अपने स्थानों को चल गये । दूसरे दिन दादूजी महाराज वहां से विचार गये ।
(क्रमशः)

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