卐 सत्यराम सा 卐
दादू हरि भुरकी वाणी साधु की, सो परियो मेरे शीश ।
छूटे माया मोह तैं, प्रेम भजन जगदीश ॥ २३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि कहते हैं कि संतों की अनुभव वाणी रूप शब्द ज्ञान - भक्ति से भरे हुए हैं । वही मानो हरि के पास ले जाने वाली जिज्ञासुओं के लिये भुरकी है । हे परमेश्वर ! वह वाणी हमारे मन रूपी मस्तक के ऊपर पड़े, जिससे हमारा मन, माया और माया का कार्य, ममता - मोह से मुक्त होकर, प्रेमाभक्ति द्वारा आपके भजन में स्थिर रहे ॥ २३ ॥
दादू भुरकी राम है, शब्द कहैं गुरु ज्ञान ।
तिन शब्दों मन मोहिया, उनमन लागा ध्यान ॥ २४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हरि, गुरु और संतों की वाणी में ही मानो राम - रस की भुरकी - कहिए, मंत्र - शक्ति है जिससे जिज्ञासुजनों का मन, मायावी मोह - ममता से मुक्त होकर संतों की वाणी में ही आसक्त रहता है और वृत्ति सदैव ब्रह्माकार ही बनी रहती है ॥ २४ ॥
(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)
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