गुरुवार, 28 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ३४-५) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- श्री गुरुदेव का उत्तर - दोहा -*
*भ्रम हीं कौं भ्रम ऊपज्यौ, चिदानन्द रस येक ।*
*मृग जल प्रत्यक्ष देखिये, तैसैं जगत बिबेक ॥३४॥*
गुरुदेव कहते हैं - भ्रम को ही भ्रम उत्पन्न होता है, वस्तुतः ब्रह्म तो एक ही है, जो कि चिदानन्दस्वरूप है । कभी कभी प्रत्यक्ष भी भ्रमात्मक होता है, जैसे मृगतृष्णा(मृगमरीचिका) में जल प्रत्यक्ष दिखायी देता है, परन्तु भ्रम होने के करण मृग को वह कभी मिल नहीं पाता; इसी प्रकार जगत के विषय में समझना चाहिये ॥३४॥
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*- चौपई -*
*निद्रा महिं सूतौ है जौ लौं ।*
*जन्म मरण कौ अंत न तौ लौं ।*
*जागि परैं तें स्वप्न समाना ।*
*तब मिटि जाइ सकल अज्ञाना ॥३५॥*
जब तक अज्ञानी प्राणी निद्रा(अज्ञान) में सोया हुआ है तभी तक जन्म मरण का नाश उसके समझ में नहीं आता । जागने पर(ब्रह्म साक्षात्कार होने पर) वह सब स्वप्न के समान प्रतीत होता है । तब उस प्राणी का सभी प्रकार का अज्ञान एवं भ्रम भी मिट जाता है ॥३५॥
(क्रमशः)

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